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________________ प्रकाशिका टीका ६.३ वक्षस्कारः सू० २९ स्वराजधान्यां श्रीभरतकार्यदर्शनम् ८९७ गंधवट्टिभूयं करेंति' अप्येके देवाः यावद् गन्धवर्तिभूतां गन्धवोत्तयुक्तां कुर्वन्ति' अत्र यावत्पदात् 'गोसीससरसरत्तचंदणकलसं, चंदणघडसुकय जाव गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं' इति गोशीर्षसरसरक्तचन्दनकळशाम्, तत्र गोशीर्ष सुगन्धितचन्दनविशेषः तस्य सरसं जलयोगेन घर्षणद्वारा आर्दीभूतं यद्रक्तचन्दनं तेन युक्ताः कलशा घटाः शोभा) सन्ति यस्यां सा तथा साम् पुनःचन्दनघट सुकृत-यावद्गन्धोद्धुताभिरामाम् सुकृताः सुरचिताः चन्दनघटाः चन्दनयुक्तकलशाः अतएव यावद्गन्धोडूताः समस्तगन्धैः व्याप्ताः अतएव अभिरामा: मनोहराः ते सन्ति यस्यां सा तथा ताम् सुगन्धवरगन्धितां श्रेष्ठसुगन्धैः सुवासितां मुगन्धितां च गन्धवत्ति भूतां कुर्वन्ति इत्यर्थः' 'अप्पेगइया हिरण्णवासं वासिंति' अप्येके देवाः हिरण्यवर्ष-रजतवर्षणं वर्षन्ति 'सुवण्णरयणवइरआभरणवासं वासेंति' सुवर्णरत्नवत्राभरणवर्षे वर्षन्ति सुवर्णवर्षे चन्द्रकान्तादि रत्नवर्ष वजवर्षम् अत्र वज्रपदेन हीरकादीनि बोध्यानि कट काष्टादशसरिक नवसरिक यावन्निसरिकादयाभरणवर्षे केचिदेवाः वर्षन्तीत्यर्थः 'तए तथा कितनेक देवों ने जगह २ चंदोवा तानकर उसे सुसज्जित कर दिया अथवा लीपकर और फिर कलई से पोतकर प्रासादादिकों की भित्तियोको अतिप्रशस्त कर दिया (अप्पेगइया जाव गंधवट्टिभ्यं करेंति) कितनेक देवों ने उसे गन्ध की वर्ती जैसा बना दिया यहां के यावत्पद से "गोसीससरसरत्तचंदणकलसं, चंदणघडसुफयजाव गंधुझ्याभिरामं सुगन्धवरगंधियं" इस पाठ का संग्रह हुआ है इस पाठ का अर्थे ऐसा हैं कि शोभा के लिए गोशीर्ष चन्दन से उपलिप्त सरसरक्त चन्दन के कलश राजद्वार पर कितनेक देवों ने रख दिये थे. जगह २ देवों ने चन्दन के कलशों को तोरण के रूप में सजाकर स्थापित कर दिया था. इससे इन सुगन्धि से यह विनीता नगरी गंधकीवर्तिका रूप जैसी बन गई थी (अप्पेगइया हिरण्णवासं वासिंति, सुवण्णरयणवइरभाभरणवासं वासेंति) कितनेक देवोंने उस विनीता नगरी में रजत चाँदी की वर्षा की, कितनेक देवों ने सुवर्ण, रत्न वन और आभरणों की-अठारह लरवाले हारों की, नौ लरवाले हारों की एवं तीन लरवाले हारों દીધી. અથવા લીપીને અને પછી ચુનોથી ઘેાળી ને પ્રાસાદાદિક ની ભીતેને અતિ પ્રશસ્ત शीधी. (अप्पेगइया जाय गंधवट्टिभूयं करेंति) 2 वा भूमिन धनी तापी सनावी पी. सही यावत् ५६ आवे छ तनाथी-"गोसीससरसरत्तचंदन कलसं.चंदणघडसुकय जाव गंधध्याभिरामं सुगंधवरगंधियं" से पाइन। सडथये। छे. એ પાઠને અર્થ આ પ્રમાણે છે કે શેભા માટે ગશીર્ષ ચન્દન થી ઉપલિપ્ત સરસરકત ચંદનના કળશો રાજદ્વાર ઊપર કેટલાક દેએ મૂકી દીધા હતા. સ્થાન–સ્થાન ઊપર દે એ ચંદનના કળશેને તાણેના આકારમાં સુસજજ કરીને સ્થાપિત કરી દીધા હતા. એવી से सुगायत पहा था ये विनीत नगरी अन्धनी पति सी मनी 5 ती. (अप्पे गया हिरण्णवास वासिंति, सुवण्णरयणवइराभरणवासं वासिति) ४ा वास તે વિનીતા નગરીમાં ૨જત ચાંદીની વર્ષા કરી. કેટલાક દેવે એ સુવર્ણ, રત્ન વા, અને આભરણેની વર્ષા કરી, અઢાર લડીવાલા હારની, નવ લડીવાલા હાની, અને ત્રણ લડી. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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