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________________ काशिकाठीका तृ. ३ वक्षस्कारः सु० २८ राज्योपार्जनानन्तरीयभरत कार्यवर्णनम् ८८९ शमिति ग्राह्यम् । 'करिता' कृत्वा 'वढइरयणं सद्दावेइ सदावित्ता जाव पोसहसालं arrfans' वर्द्धरित्नं शब्दयति आह्वयति शब्दयित्वा आहूय यावत् पौषधशालामंतुविशति अत्र यावत्पदात् पौषत्रशाला निर्माणार्थ वर्द्धकि आज्ञापयति स च पौषधशालां करोति कृत्वा उक्तामाज्ञप्तिकां राज्ञे भरताय समर्पयतीति ग्राह्यम् ' अणुपविसित्ता' अनुयि 'विणीयाए राहाणीए अमभत्तं पगिण्डइ' विनीतायां राजधान्याम् अष्टमभक्तं प्रति अत्र विनताधिष्ठायकदेव साधनाय । ननु इदमष्टमानुष्ठानम् अनर्थकं विनीता को भरतस्य पूर्वमेव तदविकारे स्थितत्वादिति चेन्मैवं निरुपद्रवेण वासस्यैयर्थिमित्यभिप्रायात् पण्डित्ता' प्रगृय 'जाव अपभत्तं पडिजागरमाणे २ विहरइ ' यावत् अष्टमभक्तं प्रतिजाग्रत् विहरति तिष्ठति स भरतः इति भावः ॥ २८ ॥ और ३६ कोश तक को चौड़ी छावनी डाली यह छावनी का स्थान विनीतानगरों के पास ही था यह एक श्रेष्ट नगर के जैसा उस समय प्रतीत होता था (करिता वेद्धइरयणं सदावेइ) सेना का पड़ाव डालेकर फिर भरत गरेशने अपने वर्द्धकिरत्न को बुलाया (सदावित्ता जाव पोसह साल अणुपविसंह) और पौषशाला के निर्माण करने को आज्ञा प्रदान की आज्ञानुसार उसने पौषत्रशाला का दिया और पीछे पौषध, शाला के निर्माण हो जाने की स्ववर श्रीभरत नरेश के पामपहुंचा भरतनरेश उस पौषधशाला में आ गये (अनुपविसित्ता विणोयाए रायहाणीए अट्टमभत्तं परिण्डइ) वहाँ आकर उन्होंने विनीता नगरोके अधिष्ठायक देव को वशमें करने के लिये अष्टमभक्त की तपस्या धारण क (पनिहिता जाव अट्टमभतं पडिजागर माणेर विहरह) और धारण करके यावत् वे उसमें छी तरह से सावधान होगये यहां ऐसी आशंकाहो सकती है कि यहां पर जो भरत नरेशने अट्टम (क) तपस्या धारण का वह तो एक प्रकार से अनर्थक जैसी ही प्रतीत होती है क्योंकि विनीता राजधानी तो पहिले से उनके सर्वाधिकार में स्थित थो सो इसका समाधान ऐसा है कि बिना किसी પડાવ વિનીતા નગરીની પાસે જ હતા એ પડાવ કજનોને એક શ્રેષ્ઠ નગર જેવાજ प्रतीत थता इतेो (करिता वड्ढइरयणं सदावेइ) सेनानी पडाव नाजीने पछी भरत नरेशे पोताना वडिलने मेाव्य (सदावित्ता जाव पोसहसाल अणुपविस) भने मोसावाने તેને પૌષધશાલા નિર્માણુ કરવાતી આજ્ઞા આપી. આજ્ઞા મુજબ તે વદ્ધ કીરને પૌષધશાલા માવી અને પછી પૌષધશાલા નિમિત થઈ ગઈ છે એવી સૂચના ભરત નરેશ પાસે પહોંચાડી, अनिरेश ते पोषशामा रह्यो (अणुपविसित्ता विणीयाए रायहाणी अट्टमभन्त्त eit) ત્યાં પહેાંચીને ભરત નરેશે વનીતા નગરીત અધિષ્ઠાયક દેવને વશમાકરવા માટે म भनी तपस्या ४० (गिण्डित्ता जाव अट्टमभत्तं पडिजागरमाणे पडिजागर माणे विरह) मने ध२ उरीने यावत् ते ते सारी रीते प्रावधान थाई गये। भत्रे क्षेत्री અશંકા ઉદ્દભવી શકે તેમ છે કે, અહીં જે ભરત નરેશે અઠ્ઠમ ભક્તની તપસ્યા ધારણ કરી તે તે એક રીતે અનથક જેવી જ પ્રતીત થાય છે, કેમકે વિનીતા રાજધાની તે પહેલે થી જ તેમના સર્વાધિકારમાં હતી” તે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે કે વગર ફાઈ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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