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________________ ८०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे राजा तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव मत्थए अंजलि कट्टु भरहं रायं जपणं विजएणं वद्धाविति' उपागत्य करतळपरिगृहीतं यावत् दशनखं शिरसावर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा भरतं राजानं जयेन विजयेन बर्द्धयन्ति 'वद्धावित्ता' वर्द्धयित्वा 'गाई वराई रयण' इं उवणेंति, उवणित्ता एवं वयासी' अय्याणि वराणि रत्नानि उपनयन्ति प्राभृति कुर्वन्ति उपनीय प्राभृतीकृत्य एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण ते आपातकिराताः आवादिषुः उक्तवन्तः किमुक्तवन्त इत्याह- 'वसुहर' इत्यादि'वसुहर गुणहर जयहर हिरिसिरिधी कित्तिधारकणरिंद ! लक्खणसहस्सधारक ! रायमिदं णे चिरंधारे ॥ १ ॥ हे वसुधर द्रव्यधर षट्खण्डवर्त्तिद्रव्यपते ! अथवा तेजोवर ! गुणधर औदार्यादि गुणधारक ! जयधर विद्वेषिभिरघर्षणीयः शत्रुविजयकारक ही श्री धी कीर्त्तिधारक नरेन्द्र तत्र हूी:गणियच्छा अग्गाई वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छाते) और उठ कर फिर उन्होने स्नान किया बलिकर्म किया कौतुक मंगल, प्रायश्चित्त किये और फिर वे सबके सब जिनके अग्रभागों से पानी निचुडता हुआ चला जा रहा है ऐसे अधोवस्त्रों को पहिरे हुए ही बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्नों को लेकर जहां पर भरत नरेश था वहां पर आये (उवागच्छिता करयलपरिग्गहियं जाव मत्थए अंजलि कट्टु भरहं रायं जएणं विजएणं वद्धाविंति ) वहां आकरके उन्होंने दोनों हाथों को जोड़कर और उसकी अंजुलि की मस्तक पर घुमाकर भरतनरेश को जय विजय शब्दों द्वारा बधाई दी (वद्धावित्ता अम्गाई, वराई रयणाई उवर्णेति) और वधाइ देकर फिर उन्होने बहुमूल्य श्रेष्ठरत्नो को भेंट के रूप में उनके समक्ष रख दिया ( उवर्णिता एवं वयासी) भेंट के रूप में रत्नो को रख कर फिर उन्होंने ऐसा कहा - (वसुहर ! गुणहर ! जयहर ! हिरिसिरि घी कित्तिधारक गरिंदलक्खणसहस्त धारक ! रायमिदं णे चिरं धारे) हे वसुधर- षट्खण्डवर्ति द्रव्यपते ! अथवा हे तेजो घर ! हे गुणधर - औदार्य शौर्यादिगुण धारक ! हे जयधर-शत्रुओ द्वारा अघर्षणीय । शत्रुविजय वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति ) भने उला ४ ने तेमा સ્નાન કર્યુ, મલિક કર્યુ અને કૌતુક મૉંગળ, પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યાં અને પછી તે સવે જેમના અગ્રભાગેાથી પાણી ટપકો કહ્યું છે એવાં અધેવસ્ત્ર પહેરીને જ, બહુ મૂલ્ય શ્રેષ્ઠ रत्नाने वर्धने यां भरत नरेश हते, त्यां खाव्या. ( उवागच्छत्ता करयलपरिग्गहियं जाव म अलि कट्टु भरहं रायं जपणं विजपणं वद्धाविति) त्यां पयीने तेथे जन्ने हाथ જોડી ને અને તે હાથાની અંજલિને મસ્તક ઉપર ફેરવી ને ઝ્ય વિજય શબ્દો વડે તેને वधामणि आयी, ( वद्धावित्ता अग्गाई वराई रयणाई उवर्णेति) भने वधाभी भायीने तेम महुभूय श्रेष्ठ रत्नो लेटना इमां तेनी समक्ष भूही हीषां ( उवणित्ता एवं वयासी ) लेटना ३५मां रत्ना भूडी ने पछी तेमाने या प्रमाणे - ( वसुहर ! गुणहर ! जयहर fafe सिरि धी कित्तिधारक ! णरिंद - लक्खणसहस्सधारक ! रायमिं इणे चिरं घारे ) डे વસુધર-ખંડ વિત દ્રવ્યપત્તે ! અથવા હે તેોધર ! હે ગુણધર ! ઔદા શૌર્યાદિ ગુણ धा२४ ! हे न्यधर ! शत्रु वडे अधर्षीय ! शत्रु विनय ४।२४ ! डे हो, श्री लक्ष्मी, धृति સ તાષ, કીર્તિ યશના ધારક ! હૈ નરેન્દ્ર લક્ષણ સહસ્ર ધારક! અથવા-હે નરેન્દ્ર-નર સ્વા " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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