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________________ प्रकाशिकाटीका तु वक्षस्कारः सू० ११ सिन्धुदेवीसाधननिरूपणम् च द्वे कनकभद्रासने सिंहासनद्वयं कटकानि च यावत् स एव मागधदेवगमोऽत्रानुसर्तव्यः यावत् प्रति विसर्जयति यावत्पदात् स भरतः प्रीतिदनं स्वीकरोति ततस्तां देवों सत्कारयति सन्मानयति प्रतिविर्जयति च स्थानगमनाय अनुमन्यते बाणप्रयोगमन्तरेणैव सिन्धुदेव्याः साधनं जात मितिभावः तदुत्तरविधिमाह-'तएणं' इत्यादि 'तएणं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमई' ततः खलु स भरतो राजा पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य 'जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छई' यत्रैव मज्जनगृहं-स्नानगृहम्, तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'हाए कयबलिकम्मे जाव जेणेव भोयणमंडवे तेणेव उवागच्छई' स्नातः कृतबलिकर्मा-काकेभ्यो दत्तान्नभागः सन् यावत् यत्रैव भोजनमण्डपस्तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भोयणमंडवंसि मुहासणवरगए अट्ठममत्तं परियादियइ' भोजन हो रही हैं ऐसे दो कनक मय भद्रासनों को, दो कटको को एवं त्रुटितो की भेंट रूप में महाराजा भरत चक्री के लिये प्रदान किये । यहां पर मागध देव के प्रकरण में कहा गया सब विषय यावत्पद से गृहीत हुआ है-अतः सिन्धु देवी द्वारा प्रदत्त सब नजराना महाराना भरतचक्रः ने स्वीकार कर लिया । और फिर उनका सम्मान और सत्कार के साथ उसने सिन्धु देवी को विसर्जित कर दिया यहां यह विशेष कथन जानना चाहिये कि महाराजा भरतचक्री ने जो सिन्धुदेवो को वश में किया है वह विना बाण के प्रयोग के किया है ( तपणं से भरहे राया पोसहमालामो . पडिणिर्खमइ ) इस के बाद भरतचक्रो पौषधशाला से बाहर आये (पडिणिक्खमित्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ ) और बाहर आकर के वे जहां पर स्नान गृहथा वहां पर गये। ( उवागच्छित्ता हाए कयबलिकम्मे नाव जेणेव भोयणमंडवे तेणेव उवागच्छइ ) वहां जाकर उन्होंने स्नान किया और स्नान करके बलिकर्म किया -काक आदिकों के लिये अन्न का विभाग किया। फिर वे वहां भोजन मंडप में भाये ( उवागच्छित्ता भोयणमंडवंसि सुहासनवरगए अट्ठमभत्तं परियादियइ ) वहां आकर के वे उस भोजन मंडप में सुखासन से बैठ કનક તેમજ રત્નોથી જેમાં રચના થઈ રહી છે એવા બે કનક ભદ્રાસને, બે કટકા તેમજ ત્રુટિતે ભરતચક્રીને અર્પણ કર્યા. અહીં મગધદેવના પ્રકરણમાં વર્ણિત સમસ્ત વિષય યાવત પદથી ગૃહીત થયેલ છે. આમ સિધુ દેવી દ્વારા પ્રદત્ત સવ નજરાણું ભરતચી ગ્રહણ કરી લીધું અને પછી સન્માન અને સત્કાર સાથે તેણે સિધુરીને વિસજિત કરી દીધી. અહીં એ વિશેષ કથન જાણવું જોઈએ કે ભરતચીએ જે સિન્ધદેવીને વશમાં કીધી તે मा नाप्रयोग विना (तपणं से भरहे राया पोसहसालामो पडिणिक्खमा) त्यार माह सरतही पाषाणामांथी हार माया. (पडिणिक्खमिसा जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ) भने महा२ मावीन्यां स्नान तु त्यां गया. (उपागच्छित्ता पहाए कयबलिकम्मे जाव जेणेव भोयणमड़बे तेणेव उपागच्छद) त्यां ४२ तभर स्नान ४यु भने स्नान કરીને બલિકમ કર્યું એટલે કે કાક વગેરે માટે અન્નને ભાગ કર્યો. પછી તે ત્યાંથી ભેજનું भ७५i व्या. (उवाच्छित्ता भोयणमंडवंसि सुहासणवरगप अट्ठभणते परियादियइ) त्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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