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________________ जम्बूद्धोपप्राप्तिस्त्र शस्यकमुसमाहितबद्धनालकटकम् , तत्र कर्केतन:-चन्द्रकान्तादिमणिः, इन्द्रनील:-इन्द्रइव नीलः श्यामः खरवादर पृथ्वीकायात्मकनीलरत्नविशेषः, शस्यक:-रत्नविशेषः रत्नत्रय सुष्टु सम्यग् आहितं निवेशितं कृतसुन्दर संस्थानमित्यर्थः ईदृशं बद्धं जाल कटकंजालकसमूहो यत्र स तथा तम्, तथा 'पसत्थ वित्थिन्न समधुरं' प्रशस्तविस्तीर्णसमधूरम् प्रशस्ता विस्तीर्णा समा वक्रता रहिता धूयंत्र स तथा तम् तथा 'पुरवरं च गुत्तं' पुरवरं च गुप्तम् पुरमिव गुप्तं श्रेष्ठसूरमित्र सुरक्षितम् समन्ततः अयं भावः रथेहि प्रायः सर्वतो लोहादिमयी आवृत्तिर्भवति, प्रवरदृष्टान्तकथनेनायमर्थः सम्पद्यते यथा पुरम् अस्त्र शस्त्र सेनादि भिमुरक्षितं तथा रथोऽपि सुरक्षितस्तम्, पुनश्च कीदृशम् 'मुकिरणतवणिज्ज जुत्तकलियं' मुकिरणतपनिययोक्त्रकलितम्, तत्र मुकिरणं सुष्टु कान्तिकं यत्तपनीयं सुवर्ण तन्मयां योक्त्रां तैः कलितस्तथा तम्, योक्त्रेण हि वोदूस्कन्धे युगं बध्यते इति 'कंकटयणिजुत्तकप्पणं' कंकटकनियुक्तकल्पनम्, कंकटका:-सन्नाहा कवचास्तेषां नियुक्ता स्थापिता कल्पना रचना यत्र स तथा तम् यथाशोभं तत्र सन्नाहाः स्थापिताः सन्तीतिभावः, तथा-'पह रणाणुजायं' प्रहरणानुयातम्, प्रहरणैशस्त्रैरनुयातो भृतयुक्तः इत्यर्थः स तथा तम्, एतदेव व्यक्ति आह-'खेडगकणगधणुमंडलग्गवरसत्तिकोंततोमरसरस य बचीसतोणपरिमंडियं' खेटककनकधनुमण्डलायवरशक्तिकुन्ततोमरशरशतद्वात्रिंशत्तूणपरिमण्डितम् , तत्र खेटकानि फलकानि 'ढाल' इति भाषा प्रसिद्धानि कणकाः-बाणविशेषाः धनमणियों से एवं शस्यक-रत्नविशेष-से सुन्दर आकारवाला बना हुआ था (पसत्थवित्थिन्नसमधुरं ) इसकी धुरा- अग्रभाग प्रशस्त थी, विस्तीर्ण थी और सम-वक्रतारहित थी (पुरवरं च गुत्तं ) श्रेष्ठ पुरकी तरह यह सुरक्षित था (सुकिरण तवणिज्जजुत्तकलियं ) सुष्टु किरणवाले तपनीय सुवर्ण की इसको बैलों के गलों में डालने वाली रस्सी थी ( कंकटणिज्जुत्त. कप्पणं) ककटक-सन्नाह कवचों की इसमें रचना हो रही थी तात्पर्य इसका यही है कि इसकी विशिष्ट शोभा बढाने के लिए इसमें जगह २ कवच स्थापित हो रहे थे. (पहरणाणुजायं) प्रहरणों से- अत्र शस्त्र आदिको से भरा हुआ था. जैसे-(खेडगकणगधणु मंडलग्गवरसत्तिकोत तोमरसरस य बत्तिस तोणपरिमंडियं ) इसमें खेटक-ढाले-रखी हुई थी, कणक-विशेष प्रकार के बाण रखेहुए थे. धनुष रखे हुए थे, मण्डलान-विशेष प्रकार की तलवारें रखी हुई थो समरिमाथा तभर शस्य:-२न विशेषथा सु१२ मारवागारतो. (पसत्थ विस्थिन्न समधुर) मेनी ५२६ (अमा) प्रश1 ता, विस्तात भने सम-assita. (पुरवरं च गुत्त) श्रेष्ठ पुरनी भये सुरक्षित ता. (सुकिरण तवणिज्जजुत्तकलिय) - होना मामा नासी २३श सु २५ तपनीय सुपणना मनाती. (कंकटय णि पणं) ४४८४-सन्ना वयाना अमां श्यना थई २४ी हुती. तात्य भानु मा પ્રમાણે છે કે એની વિશિષ્ટ ભાવૃદ્ધિ માટે એમાં સ્થાન–સ્થાન ઉપર કવચ સ્થાપિત કરેલા ii. (पहरणाणुजाय) प्री -१-४२। आथी परिपूरित २ -(खेडग कणगधणु मंडलग्गवरसत्तिकोततोमरसरस य बत्तीसतोणपरिमडिय) मा पेट-दा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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