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________________ ५८२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शस्त्रासलः, निक्षिप्तं हस्ततो विमुक्तं शस्त्रं मुसलं च येन स तथा, दर्भसंस्तारोपगतः सार्धद्वयहस्तपरिमितादर्भासनोपविष्टः एकः आन्तर व्यक्तरागादि सहायवियोगात् , अद्वितीयः तथाविध पदात्यादि सहायविरहात् अष्टमभक्तं प्रतिजाग्रन् प्रति जाग्रन् पालयन् पालयन् विहरति तिष्ठति (तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्वमइ) ततः खलु स भग्तो राजा अष्टमभक्त परिणमति पूर्यमाणे परिपूर्णप्राये सति पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति-निर्गच्छति (पडिणिक्खमित्ता) प्रतिनिष्क्रम्य (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ) यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति (उबागच्छित्ता) उपागत्य (कोडुंबियपुरिसे सहावेइ) कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आह्वयति (सदावित्ता) शब्दयित्वा आहूय (एवं वयासो) एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अबादीत् उक्तवान् (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया (हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह) क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भो देवाणुप्रियाः ! हयगजर यप्रवरयोधकलिताम्-अश्वहस्तिरथप्रवरसैनिकैः युक्तां चातुरङ्गिणी सेना दिया हाथ से शस्त्र छोड़ दिया मुसल छोड़ दिया २॥ढाई हाथ प्रमाण दर्भासन पर विराजमान वे आन्तरिक व्यक्त रागादिक के परिहार कर देने से एक अद्वितीय - होगये उनके पास में उस समय सेना आदि का एक भी जन नहीं रहा इस प्रकार से उन्होंने सविधि पोषध का पालन किया (तरणं से भरहे राया अट्ठमभत्तं सि परिणम माणसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ । सविधि पोषधका जब वे पालन कर चुके अर्थात् उसकी आराधना समाप्त हो चुका - तब वे पोषधशाला से बाहर आये (पडिौणखमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद) पोषधशाला से बाहर आकर फिर वे जहां बाह्य उपस्थान श ला थो यहां पर आये (उवागच्छित्त कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ) वहाँ आ करके उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सद्दावित्ता ऐवं वयासी-) बुला करके के उनसे उन्होंने ऐसा कहा-(खप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हय गय रह पवरजोहक लयं चाउरंगिणिं सेणं सण्णा हेह) हे देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही સવે ત્યજી દીધા. હાથમાંથી શસ્ત્ર ત્યજી દીધું, મુસલ ત્યજી દીધું, અઢિ હાથ પ્રમાણ દર્શાસન ઉપર વિરાજમાન તે ભરત મહારાજા આંતરિક વ્યક્ત રાગાદિકના પરિવારથી અદ્વિતીય થઈ ગયા. તેમની પાસે તે સમયે સેના વગેરે નો એક પણ માણસ હતો નહિ આ પ્રમાણે तभरी यथाविधि पौषधनु पालन यु. (त एणं से भरहे राया अट्ठमभत्तसि परिणम माणंसि पोतहसोलाओ पडिणिक्खमइ) यथाविधि न्यारे त पौषधनु पासन ४३ यूयो એટલે કે તેની આરાધના પૂરી થઈ ચૂકી ત્યારે તેઓ પૌષધશાળામાંથી બફા૨ આવ્યા (पडिणिक्ख मत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ) पौषशाणामांथा ५६२ भावान ५छी तसे| यां या ५थान शाकाहुती त्या मा०यI, (उवागच्छित्ता कोड बियपुरिसे पहावेह) त्यां मावाने भयौटुभि ५३पाने al. (सहावित्ता एवं वयासी) aal मधे प्रमाणे धु. (खिप्पामेब भो देवाणुप्पिया ! हय गय रह पर जोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह) हेवानुप्रियो ! तमे शीघ्रमेव हय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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