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________________ ५४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तेनव हेतुना दर्शकजनानां सुकृतम् आनन्दप्रदं वक्षो यस्य स तथा । (पालंबवलंब माणसुकयपड उत्तरिज्जे) प्रलम्बप्रलम्बमानसुकृतपटोत्तरीयः प्रलम्बेन दीर्घेण प्रलम्बमानेन-दोलायमानेन सुकृतेन सुष्ठु निर्मितेन पटेन-वस्त्रेण उत्तरीयम् उत्तरासङ्गो यस्य स तथा (मुहियापिंगलंगुलीए) मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलिकः मुद्रिकाभिः अगुलीयकैः पिङ्गलाः पिङ्गलवर्णा अमुल्यो यस्य स तथा णाणामणि कणगविमल महरिह णिउणोयविय मिसि मिसिंतविरइय सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थआविद्धवीरवलए) नानामणि कन कविमलमहाधं निपुण परिकर्मित दीप्यमान विरचित सुश्लिष्टविशिष्ट लष्टसंस्थित प्रशस्ताविद्ध वीरवलयः। तत्र नानामणि जटितसुवर्णम् अतएव विमलं स्वच्छं महाध बहुमुल्यकं निपुणन शिल्पिना (ओयविय) ति, परिकर्मितम् (मिसि मिसिंत) त्ति, दीप्यमानं विरचितं-निर्मितं सुश्लिष्टं सुसन्धिविशिष्टम् लष्टं मनोहरं संस्थितं संस्थान यस्य तत् तथा, पश्चात्पूर्वपदैः कर्मधारयः, एवं विधं प्रशस्तम् आविद्धम् परिहितं वीरवलयं येन स तथा तदन्योऽपि यः कश्चित् वीरव्रतधारी भवेत् तदा स मां विजित्य मोचयत्येतद्वलयमिति स्पर्द्धया यत् परिधीयते तद्वीरवलयमित्युच्यते (किं बहुणा) किं कयवच्छे हार से आच्छादित हुआ उनकी वक्षःस्थल दर्शकजनों को आनन्दप्रद . बनगया (पालंच पलंबमाण पुकयपडउत्तरिज्जे) झूलते हुए लम्बे सुकृत पट से उसका उत्तरासङ्गकिया गया अर्थात् बहुत ही सुन्दर लम्बे लटकते हुए वस्त्रका दुपटा उनके कंधे पर सजायागया था जो कि हवा के मन्द २ झोके से हिल रहा था (मुद्दियापिंगलंगुलोए) नो मुद्रिकाएं -अंगूठियां उसकी अंगुलियो में पहिराई गई थी उनसे उसको वे सब अंगुलियां पिङ्गलवर्णवाली ग्रतीत होने लगी णाणामणि कणगविमलमहरिहणिउणोअविअभिसिभिसंत विरइ अ सुसिलिट विसिट्र लट्र संठिअ पसत्थ आविद्ववीरवलए ) अनेक मणियों से खचित सुवर्ण का वीरवलय जो किस्वच्छ और वेश कीमती था, निपुण शिल्पी द्वारा जिसका निर्माण हुआ था, सन्धि जिसकी वड़ी सुन्दर थी, देखने में जो वड़ा सुहावना था, उसने अपने हाथ में पहिरा हुआ था जो कोई वीरव्रत धारी योद्धा मुझे परास्त करके मेरे इस वीर वलय को मुझ से छुडा लेगा वही इस आयु. (मउडदितसिरीए) भुशुटनी जती सिथी तभनु मस्त: यमायु. (हारो त्थय सकयवच्छे) हारथी माछोहित ये तन पक्षस्थ श भाटे सान हसनी अयं. (पालंब पलंबमाणसकयपडउत्तरिज्जे) खu aiमा सहत पटयी तन। त्तरासस બનાવીને પહેરાવવામાં આવ્યું. એટલે કે બહુજ સુંદર લાંબા લટકતા વસ્ત્રોને દુપટ્ટો તેના ખભા પર મૂકવામાં આવ્યું. તે દુપટ્ટો પવનના મંદ મંદ ઝોકાઓથી હાલી રહ્યો पा. (मुदियापिंगलंगुलीए) २ मुद्रिा। यही तनी मागणीसाभां पडेशपामा भावी ती तथा तनी गधी भांजीये। पीतव वाणी माती ती. (णाणामणिकणग विमलमहरिहणि उणा अविअमिसिमिसंत विरइअसुसिलिट्ठ विसिह लट्ठ संठिअ पसत्थ आविद्धवीरवलए ) अने४ भागमा ५ ५थित सुणतुं २१२७ अने पहभूख्य કે જેનું નિર્માણ ઉત્તમ શિલ્પીઓએ કર્યું હતું, જેની સંધિ અત્યંત સુંદર હતી Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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