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________________ प्रकाशिका टीका द्वि० वक्षस्कार सू० ५२ चतुर्थारकस्वरूपनिरूपणम् ४४५ पालयन्ति अनुभवन्ति (पालित्ता) पालयित्वा तत्र (अप्पेगइया) अप्येकके केचित (णिरयगामी) निरयगामिनः नरकगामिनः (जाव) यावत्- यावत्पदेन- "तिर्यग्गामिनः, मनुष्य गामिनः" इति संग्राह्यम्, (देवगामो) देवगामिनः (अप्पेगइया) अप्येकके केचित् मनुनाः (सिज्झंति) सिध्यन्ति सिद्धि प्राप्नुवन्ति (बुझंति) बुध्यन्ते- बोधं केवल ज्ञानं प्राप्नुवन्ति 'जाव' यावत् - "मुच्चति, परिणिव्याअंति" इति संग्राह्यम्, तस्य "मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति" इतिच्छाया, तत्र मुच्यन्ते इत्यस्य सकलकर्मबन्धान्मुक्ता भवन्तीत्यर्थः, परिनिर्वान्ति- पारमार्थिकमुखं प्राप्नुवन्ति, 'सव्वदुक्खाणमंत' सर्वदुःखानामन्त नाशं करेंति' कुर्वन्ति, अथ पूर्व समाप्ती विशेषमाह -'तोसे' तस्यां 'ण' खलु 'समाए' समायां काले 'तो' त्रयः- त्रिसंख्याः 'वंसा' वंशाः वंशा इव वंशाः प्रवाहाः- आवलिकाः, न तु सन्तानरूपाः परम्पराः परस्परं पितृपुत्रपौत्रप्रपौत्रादिव्यवहाराभावात् 'समुप्पज्जित्था' समुदपद्यन्त- समुत्पन्ना अभूवन् 'तं जहा' तद्यथा 'अरहंतवंसे' अहवंशः १ 'चकवट्टिवंसे' चक्रवर्तिवंशः २ 'दसारवंसे' दशाहवंशः ३ तत्र दशाहवंशः- दशार्हाणां बलदेववासुदेवानां वंशो दशाहवंशः, यदत्र दशारशब्देन बलदेववासुदेवयोर्ग्रहणं तदुत्तरसूत्रबलादेव बोध्यम, गइया" कि तनेक जीव "णिरयगामी" नरकगामी होते है, "जाव" यावत् कितने क जीव तिर्यगामी होते हैं, कितनेक जीव मनुष्य गामी होते हैं और कितनेक जीव "देवगामी" देवगामी होते हैं. तथा कितनेक जीव सिझंति" सिद्धि गति को प्राप्त होते है. 'बुज्झति" जाव मुच्चंति, परिणिव्वाअन्ति" कितनेक केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं, यावत् सकल कमों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं और पारमार्थिक सुख को प्राप्त कर लेते है "सव्वदुक्खाणमंतं करेंति" और समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं तीसे समाए तओ वंसा समुप्पज्जित्था-तं जहा-अरहंतवंसे चक्कबट्टिवंसे २ "दसारवंसे" उस काल में ३ तीन वंश उत्पन्न हुए-एक अर्हद्वंश दूसरा चक्रवर्ति वंश और तीसरा दशाह वंश इन अर्हन्त प्रभु की जो वंश, है वह अहवंश और चक्रवर्ती का जो वंश हैं वह चक्रवर्ति वंश है तथा बलदेव और वासुदेवों के वंश को दशाहे वंश कहा गया हैं. यहां पर जो दशार पार पाम सारे . मायु आयु लामा “अप्पेगइया" tearn can "णिरयगामी" ४ आभी डाय छे. यावत् ८मा । तिमी हाथ छ.४८ वा मनुष्यभाभी डाय छ सन ४८४ 01 "देवगामी विशाभा हायर तभाटा ७ "सिझति सिद्धितिने प्रात ४२ छे. "बुझंति जाव मुच्चति परिणिवा अति टमा ७वा ज्ञान प्राप्त ४२ छ. यावत् सण ४ाना भवनाथी भात थतय छ, पारमाथि सुमन प्रात ४३ छ. “सम्बदुक्खाणमंतं करेंति" भने समर जनमत ४३॥ ना छ. 'तीसे समाप तओ वसा समुप्पजित्था तं जहा अरहंतवंसे चक्कवद्रिवंसे २ दसारवंसे' तणमा त्रए व उत्पन्न थया-मे म शाल ચક્રવતિ વંશ ત્રીજે દશાઈ વંશ. એ ત્રણે માં જે અન્ત પ્રભુના વંશ છે, તે અંશ અને ચકવતીના જે વંશ છે તે ચક્રવતી વંશ છે. તેમજ બલદેવ અને વાસુદેવના વંશને દશાહ વશ કહેવામાં આવે છે. અહી જે દર શબ્દથી બલદવ વાસુદેવનું ગ્રહણ કરવામાં Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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