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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विकुरुत 'विउव्वित्ता' विकुर्व्य-उत्पाद्य 'अगणिकाय' अग्निम् 'उज्जालेह' उज्ज्वलयतप्रदीपयत प्रदीप्य 'तित्थगरसरीरगं' तीर्थकरशरीरं 'गणहरसरोरगाई गणधरशरीरकाणि 'अगगार सरोरगाई' अनगारशरीरकाणि च 'झामेह' ध्यापयत-तएणं शक्राज्ञा श्रवणानन्तरम् 'ते'ते-पूर्वोक्ताः 'वाउकुमारा' वायुकुमाराः'देवा' देवा 'विमणा'विमनसः विषण्ण हृदयाः 'णिराणंदा' निरानन्दाः आनन्दरहिताः दुःखाकुलाः अतएव 'अंसुपुण्णणयणा' अश्रुपूर्णनयना वाष्पाकुलनेत्राः 'तित्थयर चिइगाए' तीर्थकरचितिकायां जिनचितायाम् 'जाव' यावत्-यावत्पदेन-'गगहरचिइगाए अणगारचिइगाए य अग्गिकायं' इत्यस्य संग्रहः, तस्य च 'गणधरचितिकायाम् अनगारचितिकायाम्' चाग्निकायम् इतिच्छाया, गणिचितायाम् अनगारचितायाम् अग्निमिति तदर्थः 'विउव्यंति' विकुर्वन्ति वैक्रियशक्त्योत्पादयन्ति, तथा 'अग्गिकायं' अग्निकायम्-अग्निम् 'उज्जाले ति' उज्ज्वलयन्ति प्रदीपयन्ति प्रदीप्तेन चाग्निना 'तित्थयरसरीरगं' तीर्थकरशरीरकं 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'गणहरसरीरगाई' इत्यस्य संग्रहः, तस्य च 'गणधरशरोरकाणि' इतिच्छाया, गणधर कलेवराणीति तदर्थः, 'अणगारसरीरगाणि य' अनगारशरीरकाणि च 'झामेंति' ध्मापयन्तिसंयोजयन्ति 'तएणं' ततः तदनन्तरं खलु जिनादिशरीरेषु दहनसंयोजनानन्तरम् 'से' तीर्थकर की चिता में यावत् अनगार की चिता में 'वाउक्कायं' वायुकायको विकुव्वह' विकुर्वित करो 'विउव्वित्ता' वैक्रियशक्ति से उत्पन्न कर के 'अगणि कायं' अग्निकायको 'उज्जालेह' प्रदोप्त करो प्रदीप्त करके 'तित्थगरसरीरगं' तीर्थकरके सरीर को 'गणहरसरीरगाई' गणधरों के शरीर को एवं 'अणगार सरीरगाई' शेष अनगार के शरीर को 'झामेह' अग्निसंयुक्त करो "तएणं ते वा उ कुमारा देवा विमणा निराणंदा असुपुण्णणयणा' इसके बाद उन वायुकुमार देवों ने विमनस्क एवं आनन्द रहित होकर तथा नेत्रों में जिनके अश्रु भरे हुए हैं ऐसे होकर 'तित्थगरचिइगाए' जिनेन्द्रदेव को चिता में “जाव" यावत्-गणधरों को चिता में एवं अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्वणा को,तथा “अग्गिकायं उज्जालेंति" उसे प्रदीप्त किया, प्रदीप्त हुई उस अग्नि के साथ फिर उन्होंने “तित्थगरसरीरगं" तीर्थंकर के शरीर को “जाव" यावत्--गणधरों के ४३। 'विउवित्ता' यशस्तिथा वायुयन नशन 'अगणिकायं' -नयन 'उज्जा लेह' प्रहीत ४२ मे प्रमाणे मनयन प्रहात शन 'तित्थगरसरोरगं' ती १२॥ शरीरने यावत् 'गणहरसरीरगाई' रोना शरीरने मार 'अणगारसरीगाई'शेषयनआशना शरीरन 'झामेह' भनियुत४२। (तपण ते वाउकुमारा देवा विणा णिराणदा अंसुपुण्णणयणा) त्या२ मा ते वायुमार तुवामे (भन भरा मान विहान ४२ तम अभीना नेत्रोथी (तित्थगरबिइगाए) मिनेन्द्रनी तिमi (जाव) यावत् १५५शनी (यतामा तमस मनाशी यितामा मनियनी विए। ४२. तेम (अग्गिकायं उज्जालेंति) तर प्रहीत या. प्रदीप थये ते जिननी साथे तेभर (तित्थगरसरीरगं) तीर्थ ४२न। शरीरने यावत् गधराना शरीराने (अणगार सरोरगाणि) मनगारेशना शरीराने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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