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________________ ४१६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे दृष्ट्रा अवधि प्रयुनक्ति, 'पउंजित्ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ' प्रयुज्य भगवन्तं तीर्थ करम् अवधिना आभोगयति निक्षते, 'आभोइत्ता' आभोग्य निरीक्ष्य शकेन्द्रवत् सकलपरिवारसमन्वितोऽष्टापदपर्वते समागत्य वन्दन नमस्कारपूर्वकं भगवन्तं पर्युपास्ते एतदेव सूचयितुमाह-मूले 'जहा सक्के नियगपरिवारेण भाणेयव्यो जाव पज्जुवासइ' इति एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'सव्वे' सर्वे वैमानिका 'देविंदा' देवेन्द्राः' 'जाव अच्चुए' यावदच्युतः-अच्युतपर्यन्ता 'णियगपरिवारेण' निजकपरिवारेण-स्व स्व परिवारेण सहिता 'भाणेयव्वा' भणितव्याः। 'ए' एवम्-अनेन प्रकारेण-वैमानिकेन्द्रप्रकारेण 'जाव' यावत्-सर्वे यावच्छब्दोऽत्र सर्वार्थे न तु संग्रहार्थे, संग्राह्यपदाभावात्, 'भवणवासीणं इंदा' भवनवासिनाम् इन्द्रा:-विंशतिरपि भवनवासीन्द्राः निज निज परिवारेण सहिता वक्तव्याः, तथा 'वाणमंतराणं' वानव्यन्तराणां-व्यन्तरजातीयानां देवानामपि 'सोलस' षोडश-षोडश संख्यका इन्द्रा कालादयो 'जीइसियाणं दोण्णि' ज्योतिष्कदेवानां चंद्रसूर्य द्वौ इन्द्रो नियगपरिवारेण णेयव्वा' निनिजपरिवारेण सहिता वक्तव्याः, ननु को देखा "पसित्ता ओहिं पउंजए' देखकर उसने अपने अवधिज्ञान को उपयुक्त किया "पउंजित्ता" उपयुक्त करके उसने "भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ" तीर्थकर भगवान् को उस अवधिज्ञान द्वारा देखा "आभोइत्ता" देखकर "जहासक्के नियगपरिवारेणं भाणेयवो जाव पज्जुवासई" वह शकेन्द्र की तरह सकल परिवार सहित अष्टापद पर्वत पर आगया और वहां आकर के उसने वन्दन नमस्कार पूर्वक भगवान की पर्युपासना की "एवं सव्वे विं देविंदा जाव अच्चुए णियगपरिवारेणं भाणेयव्वा" इसी प्रकार से अच्युत देवलोक तक के समस्त इन्द्र अपने २ परिवार सहित अष्टापद पर्वत पर आये ऐसा कहना चाहिए, यहां यावत् शब्द सर्वार्थ में प्रयुक्त हुआ है. संग्रहार्थ में नहीं क्योंकि यहां पर संग्राह्य पदों का अभाव है, "एवं जाव भवणवासीणं इंदा वाणमंतराणं सोलस” इसी तरह भवनवासियों के २० इन्द्र, व्यन्तरों के १६ कालादिक इन्द्र, और "जोइसियाणं दोणि' ज्योतिष्कों के चन्द्र और सूर्य ये दो इन्द्र, “णिया परिवारा णेयवा" अपने २ परिवार सहित इस अष्टापद पर्वत पर ऐसा कहना चाहिये. यहाँ शंका 'पंउजित्ता' उपयुक्त शने तो 'भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोपइ' तीथ'२ भावानना ते भवधिज्ञान 43 ६शन या 'आभोइत्ता' ६शन रीने ते 'जहा सक्के नियगपरिवारेण भाणेयव्यो जाव पज्जुवासई' शहेन्द्रनी समस: ५२१२ सहित अष्टा५ ५ ५२ भावी और अन्य आवीनत बन्न नमा२ ५४ भगवाननी ५पासना 3री. 'पवं सब्वे देविदा जाव अच्चुए णियगपरिवारेणं भाणेयव्वा' या प्रमाण अत्युत वा५यन्तन। સઘળા ઈન્દ્રો પિત પોતાના પરિવાર સહિત અષ્ટાપદ પર્વત પર આવ્યા એમ કહેવું જોઈએ અહીં યાવત્ શબ્દ સર્વાર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. સંગ્રહાથમાં નહીં કેમકે અહીં સંગ્રહ ४२वा पाने मला छे. 'एवं जाव भवणवासीण इंदा वाणमंतराणं सोलस' से प्रभारी नवनवासीयाना वीस ईन्द्र, व्यत वन१६ से विगेरेन्द्र भने 'जोइसियाणे दोण्णि' यातिाना २ मन सूर्य से मेन्द्र 'णियगपरिवारा णेयवा' पति पाताना પ૨વા૨ સાથે આ અષ્ટાપદ પર્વત પર આવ્યા, એમ કહેવું જોઈએ. અહીંયાં એ જાતની Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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