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________________ प्रकाशिका टोका सू. ४ जम्बूद्वीपप्राकारभूतजगत्याः वर्णनम् त्वेन पञ्चधनुः शतानि विष्कम्भेण-विस्तारेण, 'जगई समिया परिक्खेवेणं' जगती समिका-जगत्या समा समाना जगती समा सैव जगती समिका परिक्षेपेण-परिधिना, यावान् जगत्याः परिधिस्तावानेवास्या अपीति भावः । सा कीदृशी ? इत्याह-'सबरयणामई" इत्यादि । सर्वरत्नमयो सर्वात्मना रत्नमयो 'अच्छा जाव पडिरूवा' अच्छा यावत् प्रतिरूपा इत्येतस्य विवरणं प्राग्वत् । 'तीसे णं पउमवरवेइयाए' तस्याः अनन्तरोक्तायाः खलु पद्मवरवेदि कायाः 'अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' अयमेतद्रपः- वक्ष्यमाणस्वरूपः वर्णावासः वर्णनषद्धतिः, प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा-'वइरामया णेमा' नेमाः भूमिभागावं निष्कामन्तः प्रदेशाः वज्रमयाः-वज्रमणिमयाः 'एवं जहा जीवाभिगमे' एवम्-अनेन प्रकारण यथा जीवाभिगमे जीवाभिगमसूत्रे पद्मवरवेदिकावर्णनविस्तर उक्तः तथाऽत्रापि सर्वो बोध्यः स च कियत्पर्यन्तः ? इत्याह-"जाब अट्टो" यावदर्थः-वज्रमया नेमा इत्यारभ्य अर्थ इत्यन्तः पाठो बोध्यः, तत आरभ्य कियत्पर्यन्तः पाठो ग्राह्यः ? इत्याह-'जाव धुवा णियया सासया" यावद् ध्रुवा नियता शाश्वती" इति, ततोऽपि कियत् पर्यन्तः पाठो ग्राह्यः? इत्याह - ‘जाब णिच्चा' यावनित्या, इति, स च सर्वः पाठ एवम्-"वइरामया णेमा सयाई विखंभेणं" ऊँचाई में आधे योजन की है और विस्तार में अर्थात् चोड़ाई में पांचसौ धनुष की है "जगई समिया परिक्खेवेणं" इसका परिक्षेप जगती के परिक्षेप बराबर पावरवेदिका "सव्वरयणामई' सम्पूर्णरूप से रत्नमयी है और अच्छ आदि प्रतिरूपान्ततक के विशेषणों वाली है "तासेणं पउमवर वेइयाए अयमेयारूवे पण्णावासे पण्णत्ते' इस पद्मवरवेदिका के वर्णन के सम्बन्ध में ऐसा कहा गया है-"तं जहा-वइराम या पाइसके नेम--भूमिभाग से ऊपर की और निकले हुए प्रदेश वज्रमणि के बने हुए हैं "एवं जहा जीवाभिगमे" इस तरह से वर्णन जैसा इसका जीवाभिराम सूत्र में किया गया है वैसा हो यहां पर समझना चाहिये. और यह वहां का सब वर्णन वेदिका के सम्बन्ध का “जाव अट्ठो जाव धुवा णियया सासया" इस सूत्र पाठ तक का यहां पर कहलेना चाहिये क्यों कि वेदिका का वर्णन वहां इसी सूत्र पाठ तक " अयामा अायोशन २८मी छ भने विस्तारमा मेट योभा पांयसे। घनसी छ. "जगई समीया परीक्खेवेणं" सानो परिक्ष५ गतीना परिक्ष५ ५२१२ माझवश्वरि । "सव्वरयणामई" पूणे २(नमया छ भने १२७ वगेरेथी प्रति३५॥ सपना विशेष । युरत छे. 'तीसेणं पउमवरवेइयाए अयमेयरूवे वण्णावासे पण्णत्ते" पावन १. म २५ डेबामा न्यु. "तं जहा वरामया" ना थी ५२नी त२३ नीरजेता प्रदेश 40 मलिना मानेला छे. 'एवं जहा जीवाभिઆ પ્રમાણે આનું વર્ણન જીત્રાભિગમમાં જે રીતે કરવામાં આવ્યું છે, તેમ અહી પણ नये. अन वा विषेतुं न जाव अट्ठो जाव धुवा णियया सासया" ગ સત્રપાઠ સુધી અહી' સમજવું જોઈએ. કેમ કે વેદિકાનું વર્ણન ત્યાં એ જ સૂત્રપાઠ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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