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________________ प्रकाशिका टोका द्वि. वक्षस्कार ४२ भगवतः केवलशानोत्पत्तिवर्णनम् ३८३ 'हियसुहणिस्सेयसकरे' हितसुखनिःश्रेयसकरः, हितः परिणामशुभफलजनकः सुखम् आत्यन्तिकदुःखनिवृत्तिः, निश्रेयसं कल्याणकरं सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, एतेषां करः कारक अत एव 'सव्वदुक्खविमोक्खणे' सर्वदुःखविमोक्षणः सर्वदुखेभ्यः शारीरमानससकलदुःखेभ्यो जीवान विमोक्षयति दूरी करोतीति तथा शारीरमानससकलदुःखापनेतेत्यर्थः तत एव 'परमसुहसमाणणे' परमसुखसमापनः परमम् विनाशाभावात् सर्वोत्कृष्टं यत् मुखं सातं तत् सम्पग याथातथ्येन आपयति प्रापयति ददाति यः स तथा परम सुखप्रदाता च 'भविस्सई' भविष्यतीति जानन पश्यंश्च विहरतीति । मूले हि 'सव्वन्नू सव्वदरिसी' इत्युक्तम् । तत्रोत्थं विचिकित्सा जायते केवलज्ञानं केवलदर्शनं च केवलज्ञान केवलदर्शनावरणयोः क्षीणमोहान्त्यसमय एव क्षीणत्वेन युगपदुत्पद्यते। ततश्च यथा 'सव्वन्नू सव्वदरिसी' इति ज्ञान प्राथम्यक्रमस्तथा 'सव्वदरिसीसव्वन्नू' इति दर्शनप्राथम्यक्रमोऽपि भवितुमर्हति, समानन्यायात् ? इति । अत्राह-'सव्वाओ लद्धीओ सागारोवउत्तनिःश्रेयसकर है परिणाम में शुभ है इसलिये हितरूप है, आत्यन्तिक दुःख की निवृत्तिरूप है इस लिए सुखकर है, और सकलकर्मों का क्षय करानेवाला है इसलिए निःश्रेयसकर है। इसी से सकल जीवों के शारीरिक, मानसिक समस्त दुःखों की निवृत्ति होती है इसी कारण यह सर्वदुःखविमोक्षणरूप कहा गया है और इसी से जीवों को अनन्त सर्वोत्कृष्ट जो सुख है उसका यह प्रदाता है पूर्व में हुआ है और आगे भी होगा, इस प्रकार से ज्ञाता दृष्टा बन गये यहां पर “सव्वन्न सव्वदरिसी" जो ऐसा सूत्रपाठ कहा गया है उसमें ऐसी विचिकित्सा संदेह हो सकती हैं कि केवल ज्ञान और केवल दर्शन, केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनारण के क्षीणमोह नामके गुणस्थान के अन्त्य समय में ही क्षीण हो जाने से युगपत् उत्पन्न होते हैं तो फिर जिस प्रकार से सर्वज्ञ सर्व दी ऐसे कथन में ज्ञान की प्रथमता का क्रम कहा गया होता है उसी प्रकार "सव्वदरिसी सव्वन्नु" ऐसा भी दर्शन को प्रथमता का क्रम हो सकता है ? इसके लिए समाधान ऐसा है ભવ્ય ઇવેના માટે હિત-સુખ નિઃશ્રેયસ્કર છે, પરિણામમાં શુભ છે, એથી હિત રૂપ છે. આત્યન્તિક દુ:ખની નિવૃત્તિ રૂપ છે, એથી સુખકર છે અને સકલ કર્મોને ક્ષય કરનાર છે. એથી નિશ્રેયસ્કર છે, એથી જ સકલ જીવના શારીરિક-માનસિક સમસ્ત દુખની નિવૃતિ થાય છે, એટલા માટે જ આ સર્વદુખવિમોક્ષણ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે અને એથી જ ના અનન્ત સર્વોત્કૃષ્ટ જે સુખ છે, તે સુખને આપનાર એ જ છે, ભૂતકાળમાં પણ સુખ આપનાર એ જ માર્ગ હતો અને ભવિષ્યમાં પણ સુખ આપનાર એ જ માર્ગ થશે, साप्रमाणेशाता-हष्टासनी गया. सही “सव्वण्णू सव्वदरिसो" २ मा तने। सूत्रा। કહેવામાં આવેલ છે, તેથી એવી વિચિકિત્સા (સંદેહ) થઈ શકે છે કે કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શન કેવળ જ્ઞાનાવરણ અને કેવળ દર્શનાવરણના ક્ષીણ મોહ નામના ગુણસ્થાનના અત્ય સમયમાં જ ક્ષીણ થઈ જવાથી યુગપત ઉત્પન્ન થાય છે, તો પછી જે પ્રમાણે સર્વજ્ઞ સર્વદર્શી सवा ४थनमा ज्ञाननी प्रथमतान। म अवामां मावत छ प्रभारी सव्वदरिसी सव्वन्नू" तने। पy ननी प्रथमताना म सनवी श छ? सानु समाधान मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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