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________________ ३१२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमचे भूमिभागः भूमिप्रदेशः 'होत्था' अभवत् । तत्र दृष्टान्तमाह-'से जहानामए' इत्यादि । 'से जहा णामए' तद्यथा नामकम् 'आलिंगपुक्खरेइ वा' आलिङ्गपुष्कर इति वा, इत्यादि सर्व वर्णनं सुषमसुषमा सूत्रवद् बोध्यम् । एतदेव दर्शयति सूत्रकारः 'तं चेव जं सुसम सुसमाए पुव्ववणियं तदेव यत् सुषमसुषमायां पूर्ववणितमिति । सम्प्रति ततो वैशिष्टय प्रतिपादयति 'नवरं' इत्यादि । णवरं' नवरं केवलं 'णाणत्तं' नानात्वं-भेदोऽयम् , यत् सुषमसुषमासमुत्पन्ना मनुजाः 'चउधणुसहस्समूसिया' चतुर्धनुस्सहस्रोच्छूिता-चतुस्सहस्त्रधनुः परिमाणोच्चाः क्रोशद्वयोन्नताः प्रज्ञप्ताः । तेषां मनुजानाम् ‘एगे' एकम् 'अट्ठावीसेपिट्ठकरंडयसए' अष्टाविंशं पृष्ठकरण्डकशतम् अष्टाविंशत्यधिकैकशतसंख्यकाः पृष्ठकरण्डकाः भवन्ति । प्रथमारकोत्पन्न मनुजापेक्षया सुषमारकोत्पन्नमनुजानां पृष्ठकरण्डका अधं भवन्ती. ति बोध्यम् । तथा-तेषां मनुजानां 'छट्ठभत्तस्स' षष्ठभक्तेऽतिक्रान्ते 'आहारट्टे' आहारार्थ। =आहारप्रयोजनं समुत्पद्यते । तथा ते मनुजाः 'चउसर्टि राइंदियाई' चतुप्पष्टिं रात्रिन्दिवं स्वापत्यं 'सारक्खन्ति' संरक्षन्ति । अत्रेदं बोध्यम्-चतुष्पष्टिदिवसावशिष्टायुषस्ते मनुजाः अपत्यानि जनयन्ति, तानि चतुष्पष्टिदिवसावधिसंरक्ष्य संगोप्य पूर्वोक्तप्रकारेण कालधर्मसुसमसुसमाए पुव्ववण्णियं" हे गौतम ! इस काल की उपस्थिति में भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहु सम रमणीय रहता है अत्यन्त सम और मनोरम होता हैं यहां इसका वर्णन "आलिङ्गपुष्कर आदि रूप से पूर्व में सुषमसुषमा के वर्णन में कहे गये सूत्र की तरह से कर लेना चाहिये। परन्तु उस काल के समय के वर्णन में और इस काल के समय के वर्णन में जो अन्तर है वह 'नवरं" इस पद द्वारा सूचित करते हुए सूत्रकार कहते है कि इस काल में उत्पन्न हुए मनुष्य "चउधणुसहस्ममूसिया एगे अट्ठावीसे पिट्ठकरंडयसए, छ? भत्तस्स आहारट्ठे चउसर्ट्सि राइंदियाई सारखंति" चारहजार धनुष की अवगाहनावाले होते हैं अर्थात्-दो कोश के ऊँचे शरीर वाले होते है, १२८ इनके पृष्ट करण्डक होते है, अवसर्पिणी के प्रथम काल के मनुष्यों के पृष्टकरण्डक २५६ होते है-तब कि इनके पृष्ट करण्डक उनसे आधे होते है, दो दिन के व्यतीत हो जाने नाममा प्रभु छ–'गोयमा! वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था से जहा णामए आलिंग पुक्तरेह वा तं चेव जं सुसमसुसमाए पुव्बणियं" गौतम ! से मां भरतत्रन ભૂમિભાગ બહુસમરમણીય રહે છે, અતીવ સમ અને મરમ હોય છે. અહી આ મિभानु न 'भालिङ्ग पुष्कर' वगरे ३५मा पूर्वमा सुषम सुषमाना वनमा वाम આવેલ સૂત્રની જેમ જ સમજી લેવું જોઈએ. પણ તે કાળના સમયનાં વર્ણનમાં અને આ अपना समयना धुनमा २ अन्तर छे ते 'नवरं' मा ५६ 43 सूयित ४२ता सूर ४३ छतमinila मनुष्य 'चउधणुसहस्समूसिया एगे अट्ठावीसे पिठ करंयसए, छठ्ठ भत्तस्स आहारडे, बउसद्धिं राईदियाई साक्खंति" यार ७१२ घनुष २८ सपाહનાવાળા હોય છે. એટલે કે બે ગાઉ જેટલા ઉંચા શરીરવાળા હોય છે. ૧૨૮ એમના પૃષ્ઠ કરંડકો હોય છે. અવસર્પિણના પ્રથમકાળના મનુષ્યના પૃષ્ઠ કરડકે ૨૫૬ હાય છે. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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