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________________ प्रकाशिका टीका द्वि०वक्षस्कार सू. २७तस्मिन्कालेगृहादिकानिसन्तिनवेतिप्रश्नोत्तराणि २६१ ताः पुनगौं तमस्वामी पृच्छति-अत्थि णं भंते !' हे भदन्त ! किमस्ति तस्यां समायां भरते वर्षे 'हिरण्णेइवा' हिरण्यमिति वा; तत्र हिरण्यं-रूप्यम् अघटित सुवर्णमिति वा सुवण्णेइवा' सुवर्ण-घटितं सुवर्णमिति वा, कंसेइ वा' कांस्यम्-ताम्रपुसंयोगजनितो धातुविशेषः इतिवा, 'सेइवा' दृष्यं वस्त्रमिति वा, 'मणिमोत्तियसंख सिलप्पवालरत्तरयण सावज्जेइ वा' मणिमौक्तिकशंखशिलामवालरक्तरत्नस्वापतेयमिति बा, तत्र-मणिः वैडूर्यादिः, मौक्तिक-मुक्ताफलं, शंख-दक्षिणावर्तादिः प्रशस्तः शंखशिला स्फटिकादिरूपा, प्रवालंविद्रमः रक्त रत्नानि पद्मरागादीनि, स्वापतेयं रजतसुवर्णादिकं द्रव्यम् एतेषां समाहारे तथेति । तस्मिन् काले हिरण्य सुवर्णादीनि द्रब्याण्यासन् न वेति गौतम स्वामिनः प्रश्नाशयः । भगवानाइ हता ! अत्थि' हन्त ! गौतम ? अस्ति हिरण्यादिकं तस्मिन् काले । परन्तु तत् 'तेर्सि मणुयाण परिभोगत्ताए' तेषां मनुजानां परिभोग्यतया उपभोग्यत्वेन 'णो चेवणं' नो चैव खलु 'हव्वमागच्छइ' हव्यं कदाचिदपि आगच्छति-याति इति । कहे गये हैं "अस्थि णं भते ! हिरण्णेइ वा सुवण्णेइ वा कंसेइ वा दूसेइ वा मणिमोत्तिय संख सि लप्पवाल रत्तरयण सावज्जेइ वा" हे भदन्त ! उसकाल में क्या भरत क्षेत्र में हिरण्य चाँदी अथवा अघटित सुवर्ण होता है क्या ? सुवर्ण होता है क्या ? कांसा होता है क्या ? दूष्य वस्त्र होते हैं क्या ? मणि, मौक्तिक, शंख, शोला, प्रवाल रक्त रत्न और स्वापतेय ये सब होते हैं क्या? उत्तर में प्रभु कहते है "हंता अस्थि णो चेव ण तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छइ" हाँ गौतम उस काल में ये सब होते हैं पर ये उन पुरुषों के परिभोग के काम में नही आते हैं । १८ प्र कार के कर-टेक्सों से जो सहित होते हैं तथा वाड से जो घिरे रहते है उनका नाम ग्राम है यहां यावत्पद से आकर आदि स्थानों का ग्रहण हुआ है इन में सुवर्ण, रत्न आदि उत्पन्न करने वाली खाने जहां पर होती है ऐसे स्थान का नाम आकर है । और १८ प्रकार के टेक्स जिनमें नही लगते है ऐसे स्थानों का नाम नगर है । धुलि के बने हुए कोट से जो परिवेष्टित होते हैं उन स्थानों का नाम खेट है । छोटे प्राकार से जो परिवेष्टित रहते है उन स्थानों का नाम कर्बट है भन् त मनुष्य। मसि, भषी, कृषी, पgan वगैरेथी हित हाय छे. 'अस्थि मते हिरण्णेइ वा सुवण्णेइ वा कसेइ वा दूसेड वा मणिमोत्तिय संखसिलाप्पवालरत्तरयण साव पजेहवा' महन्त ते मा भरतक्षेत्रमा २९य यही मथवा मधाटत सुवणाय छे, સુવર્ણ હોય છે ? કાંસું હેય છે. દુષ્ય-વસ્ત્ર હોય છે. મણિ મૌકિતક, શંખ, શિલા પ્રવાલ २४ २ल भने स्वापतेय थे साय छ, उत्तरमा प्रभु ४९ छे. "हंता-अस्थि णो चेव ण तेसि मणुयाण परिभोगत्ताए हव्वमागच्छई" i, गोतम मां स य छ. ५५ એ તે મનુષ્યના ઉપભોગમાં આવતા નથી. ૧૮ પ્રકારના ટેકસ (કેરે) સહિત જે હોય છે. તેમજ વાડથી જે આવૃત રહે છે. તેનું નામ ગ્રામ છે. અહીં યાત્મદથી આકર વગેરે સ્થાન ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. આમાં સુર્વણ રત્ન વગેરે ઉત્પન કરનારી ખાણે જ્યાં હોય છે. એવા સ્થાનનું નામ આકર છે, અને ૧૮ પ્રકારના ટેકસ જે સ્થાનમાં નાખવામાં આવતા નથી, તેવા સ્થાનેનું નામ નગર છે. માટીની દીવાલથી ને પરિવેષ્ટિત હોય છે, તે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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