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जम्बूद्वीपप्रज्ञसूत्रे
यणिज्जे' विस्वादनीयं विशेषतः, दिप्पणिज्जे, दीपनीयं- दीपयति जाठराग्निमिति दिग्रहे बाहुकात्कर्त्तर्यनीयर प्रत्ययः, जाठराग्निदीप्तिवरमित्यर्थः, 'दप्पणिज्जे' दर्पणीयम्-दृप्तिकरम् उत्साहवर्द्धकमिति यावत् 'मयणिज्जे' मदनीय - मदजनकं 'बिंहणिजे ' बृहणीथं - धातृपचयकर', 'सव्विदियगाय पल्हायणिज्जे, सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादजनकं च भवति किम् 'भवे एयारूवे' एतद्रूपः = एतत्तुल्यः तेषां पुष्पफलानाम् आस्वादो- रसो भवेत् ? भगवाह 'गोयमा ! णो णट्ठे समट्टे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, 'तेसि णं पुष्पफलाणं' तेषां खलु पुष्पफलानाम् 'इत्तो' इतः चक्रवर्त्तिभोजनतः 'इदुतराए चेव' इष्टतरकचैव 'जाव' यावत् - यावप्पदेन कान्ततरश्चैव प्रियतरकश्चैव मनोज्ञतरकश्चैव मन आमतरकश्चैव इति पदसंग्रहः एषामर्थोऽत्रैव सूत्रे पूर्वं गतः, 'आसाए' आस्वादौ रसः पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथित इति ॥ ०२५॥
सुषमसुषमाकाले भरतवर्षोत्पन्ना जनास्तमाहारमाहार्य व वसन्ति ? इति जिज्ञासोपशान्तये गौतमस्वामी पृच्छति -
मूलम् - तेणं ! मणुया तमाहारमाहारेत्ता कहिं वसहि उवेर्ति गोयमा ! रुक्खगेहालयाणं ते मण्या पण्णत्ता समणाउसो ! तेसि णं भंते!' रुक्खाणं केरिसए आयरभाव पडोयारे पण्णत्ते गोयमा ! कूडागारसंठिया पेच्छा
अति प्रशस्त गन्व से और अतिप्रशस्त स्पर्श से युक्त हुआ जैसा आस्वादनोय होता है, विशेष रूप से स्वादनीय होता है, जठराग्नि का दीपक होता है, उत्साहवर्धक होता है, मदनीय होता है, बृंहणीय - धातुओं के उपचय का करने वाला होता है, प्रह्लादनीय- समस्त इन्द्रियों को और पूरे शरीर को आनन्द देने वाला होता है. तो क्या है भदन्त ! " भवे एयारूवे" इनके जैसा ही उन पुष्पफल का आस्वाद - रस होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं " गोयमा ! णो इट्टे समट्टे” हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् चक्रवर्ती के भोजन से भी इष्टतरक, ही यावत् आस्वाद इन पुष्पफलों का होता कहा गया है, यहां यावत्पद से "कान्ततरक, प्रियतरक, मनोज्ञ तरकर और मन आमतरक" इन पदों का संग्रह हुआ है । इन संग्रहीत पदों का अर्थ जैसा पहले कहा गया है- बैसा ही है ।। २५॥
शन्निने द्वीप होय छे, उत्साह वर्ध होय छे, महनीय होय छे, प्रीय-धातुयोनु उपयाચક હેાય છે. અને પ્રહ્લાદનીય-સવ ઈન્દ્રિયાને અને સવ શરીરને આનંદ આપનારુ' હાય छे, तो शु डे अहन्त ! ' भवेपयारूवे” शोभना व ते पुण्यानो स्वाद होय छे ? सेना नवाणमां प्रभु उडे हे. 'गोयमा ! णो इट्ठे समट्ठो' हे गौतम! या अर्थ समर्थ नथी. એટલે કે ચક્રવતિ ના ભેાજન કરતાં પણ ઇષ્ટ તરક ચાવત્ આસ્વાદ એ પુષ્પ ફલાર્દિકને! હાય छे. गडी यावत् पहथी "कान्ततरक प्रियतरक मनोशतरक. अने मन आम तरक'' से सर्व પદ્માને સગ્રહ થયેલ છે. એ પટ્ટાની વ્યાખ્યા. પહેલાં કરવામાં આવી છે, ડારયા
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