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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे येति वा, 'आकासियाइ वा' आकाशिकेति वा 'आदंसियाइ वा' आदर्शिकेति वा, 'आगासफलोवमाइ वा' आकाशफलोपमेति चा, 'उवमाइ वा' उपमेति वा, 'अणोवमाइ वा' अनुपमेति वा, विजयाधनुपमान्तास्तदानीन्तना अमृतस्त्रादा भोज्यविशेषा विज्ञेयाः किम् ‘एयारूवे' एतद्रूपः-एतत्प्रकारकः-गुडादीनामास्वाद तुल्यस्तेषामास्वादो 'भवे' भवति ? इति । भगवानाह-'गोयमा ! णो इणट्ठसमडे' हे गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः 'सा णं पुढवी' सा खलु पृथिवी 'इत्तो' इतः- पूर्वोक्तगुडादितः 'इतरिया चेव' इष्टतरिका-अतिशयेन सकलेन्द्रिय सुखजनिका । 'जाव' यावत्पदेन-कान्ततरिकाप्रियतरिका मनोज्ञतरिका चेति पदत्रयं संगृह्यते, तत्र-कान्ततरिकाअतिशयेन रुचिकरा प्रियतरिका अतिशयेन प्रेमोत्पादिका मनोज्ञतरिका-अतिशयेन मनोहरा तथा 'मणामतरिया' मन आमतरिकाअतिशयेन पुष्पोत्तर का होता है पद्मोत्तर का होता है पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर ये दो भेद एक जाति को शर्करा के होते हैं, विजया का होता है "महाविजयाइ वा, आकासियाइ वा, आदसियाइ वा, वा,आगासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, अणोवमाइ वा, भवे एयारूवे ?" महाविजया का होता है, आकाशिकाका होता है, आदर्शिका का होता है, आकाशफलोपमा का होता है, उपमा का होता है, अनुपमा का होता है-ये सब विजया से लेकर अनुपमा तक के उस समय के विशेष भोज्य पदार्थ हैं. इसका स्वाद अमृत के जैसा होता है, इतना प्रभु के कहते ही गौतमस्वामीने बीच में ही पूछा तो क्या हे भदन्त ! जैसा इनका स्वाद होता है वैसा ही स्वाद वहीं की पृथिवी का होता है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णो इणटे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. क्योंकि “सा णं पुढवी इत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरियाचेव आसा एणं पण्णत्ता" वहां की पृथिवी इन पूर्वोक्त गुडादि पदार्थों से भो इष्टतरक है- अतिशय रूपसे सकल इन्द्रिय को सुख जनक है. यहां यावत्पद से-“कान्ततरिका प्रियतरिका, मनोज्ञतरिका" इन तीन पद का ग्रहण हुआ है, अतः इन पदों के अनुसार वह कान्ततरिका--अतिशय रूपसे पनोत्तर समन्न हो से विशेष प्रारी शराना छे) वियाना डाय छे. "महाविजयाह वा, आगासियाइ वा आदेसियाइ वा, आगासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, भवे एया स्वे" महाविया। डाय छ, माशिअन हाय छ, मशिन डाय छ, माशફલાપમાન હોય છે, ઉપમાન હોય છે, અનુપમાને હોય છે, એ બધા વિયાથી માંડીને અનુપમાં સુધીના તે વખતના વિશેષ પ્રકારના ભેજ્ય પદાર્થો છે. એમનો આસ્વાદ અમૃત જે હોય છે. પ્રભુએ આટલું કહ્યું કે તરત ગૌતમે વૃચ્ચે જ પ્રશ્ન કર્યો કે-હે ભદન્ત ! જેવો એમનો સ્વાદ હોય છે, તેવા જ સ્વાદ ત્યાંની પૃથિવીના હોય છે. ? તે એના જવાसभा प्रभु ४३ छ-गोयमा ! णो इणठे समठे" गौतम! 241 अथ समथ नथी. म "साणं पुढवो इत्तो इद्रुतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव आसारणं पण्णता" त्यांनी પ્રથિવી પૂર્વોકત ગોળ વગેરે પદાર્થો કરતાં પણ ઈટ તરક છે. અતિશય રૂપથી સકલ ઇનિદ્ર भाट सुमन छे. अडी यावत् ५४थी "कान्ततरिका, प्रियतरिका मनोशतरिका" से ત્રણ પદ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. એથી એ પદ મુજબ તે કાન્તતરિકા–અતિશય રૂપમાં Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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