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________________ प्रकाशिका टोका द्वि. वक्षस्कार सू. २४ सुषमसुमाभाविमनुष्यस्वरूपनिरूपणम् २३३ सन्नतपार्थाः,' संगयपासाओ ' संगतपार्थाः, 'सुजायपासाओ' सुजातपार्थाः, 'मियमाइयपीण रइयपासाओ' मितमात्रिकपीनरतिदपााः एतत्पदचतुष्टयं प्राग्वत् केवलं स्त्रीपु. सत्वकृतो विशेषः, 'अकरडय कणगरुयगणिम्मलसुजायणिरुवहयगायलट्ठीओ' अकरण्डुक कनकरुचकनिर्मलसुजातनिरुपहतगात्रयष्टयः-अकरण्डु का मांसलत्वादनुपलक्ष्यमाणपृष्ठवंशास्थिका कनकरुचका-स्वर्णवत्कान्तिकलिता निर्मला स्वाभाविकाऽऽगन्तुकोमयमलरहिता, सुजाता गर्भाधानादारभ्य जन्मदोषरहिता, निरूपहता ज्वरादिरोगदंशाधुपद्रवरहिता गात्रयष्टिः-शरीररूपयष्टि र्यासा तास्तथा, 'कंचण कलसप्पमाणसमसहिय लट्ठचुच्चुआमेलगजमलजुयल वट्टिय अब्भुण्णयपीणरइयपीवरपओहराओ' काश्चनकलशप्रमाणसमसहितलष्ट (रम्य) चूचुकामेलक यमल युगल वर्तिताभ्युन्नतपोनरतिदपीवरपयोधरा:-काञ्चनकलशप्रमाणौ सुवर्णघटमितौ समौ परस्परं समानौ न न्यूनाधिको सहितौ मिलितो आन्तर्यरच्छुओ सण्णयपासाओ, संगयपासाओ, सुजायपासाओ. मियमाइयपोणरइयपासाओ" इनके उदर के वाम दक्षिणभाग अनुद्भट-अस्पष्ट होते हैं, प्रशस्त-लाध्य होते हैं, और पीन-स्थूल होते हैं, "सन्नतपार्श्व, सुजातपार्श्व, मित्रमात्रिक पीन रतिदपार्श्व"ये पदत्रय पहिले मनुज वर्णन के समय व्याख्यात हो चुके हैं "अकरंडय कणग रुयग णिम्मल सुजायणिरुवहय गायलट्ठीओ" इनकी शरीर यष्टि अकरण्डुक-मांसल होने से अनुपलक्ष्यमाण है. पृष्ठवंश की हड्डी जिसमें ऐसी होती है, तथा स्वर्ण को जैसो कान्ति से युक्त होती है, निर्मल स्वाभाविक एवं आगन्तुक मैल से रहित होती है. सुजात होती है. गर्भ से लेकर जन्म तक के दोषों से रहित होती है एवं निरुवहतज्वरादिरोग तथा देशादिक उपद्रव से रहित होती है "कंचणकलसप्पमाणसमसहियलट्ठचुच्चु आमेलग जमलजुअलवद्रिय अब्भुणययोग रइय पवरप मोहराओ' इनके दोनों पयोधर सुवर्ण के घट के जैसे सुहावने होते हैं, सम होते हैं परस्पर में समान होतेहैं न्यूनाधिक नहीं होते हैं. आपस में मिले हुए होते हैं. इनको इतनी अधिक निकटता रहती है कि इन दोनों के बीच में पासाओ, सुजायपासाओ, मियमाइय पीणरइमपासाओ" मेमना Rन पाम-Res ભાગ અનુદુ ભટ અસ્પષ્ટ હોય છે. પ્રશસ્ત લાધ્ય હોય છે. અને પીન સ્થૂલ હોય છે. "सन्नतपाव, सुजातपाव, मित्र मात्रिक पीनरतिदपार्श्व" से त्र0 पहे। ५i भनुभव बनना प्रभा व्याभ्यात ये छे. 'अकरंडय कणगरुयगणिम्मल सुजाय णिरुवहय मायलहीओ" अमनी शरीरयष्ट ४२ मांसल पाथी अनु५सयमा छे वशन હાડકું જેમાં એવી તે હોય છે તેમજ વર્ણના જેવી કાંતિથી યુકત હોય છે. નિર્મળ સ્વા ભાવિક અને આગતુક મેલથી વિહીન હોય છે. સુજાત હોય છે. ગર્ભથી માંડીને જન્મ સુધીના દૃષોથી રહિત હોય છે. અને નિવહત જવરાદિરોગ તેમજ દંશાદિક ઉપદ્રથી सीन डाय छे. "कंचणकलसप्पमाणसमसहिय लढवाचु आमेलगजमल जुअल पट्टिअ अभुण्णयवीणरइअपीवरपओहराओ" समान भन्ने पयोधरे। सुवर्ण घटना वा भना હર હોય છે. સમ હોય છે પરસ્પર માં સમાન હોય છે. ન્યૂનાધિક હોતા નથી પરસ્પર Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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