SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टोका द्वि. वक्षस्कार स.२२ सुषमसुषामख्यावसपिण्याः निरूपणम् १९१ च्छण्णपडिच्छण्णा' पत्रैश्च पुष्पैश्च फलैश्च अवच्छन्न प्रतिच्छन्नाः व्याप्ताः 'सिरीए' श्रि या-शोभया 'अइव २'अतीवातीव अतितराम् ‘उवसोभेमाणा' उपशोभमानाः विराजमाना: 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति विद्यान्ते 'तीसेणं समाए भरहे वासे' तस्यां समायां खलु भरते वर्षे भरतक्षेत्रे 'तत्थतत्थ' तत्र तत्र स्थले स्थले 'बहवे' बहुनि वहुसंख्यकानि मूले पुस्त्वं प्राकृतत्वान्दोध्यम् 'भेरुतालवणा' भेरुतालवनानि भेरुतालाः वृक्षविशेषाः तेषां वनानि एवं 'हेरुतालवणाई मेरुतालवणाई पभया लवणाइं सालवणाई सरलवणाई सत्तवण्णवणाई पूयफलिवण्णाई खज्जूरीवणाई णालिएरीवणाई' हेरुताल मेरुताल प्रभताल साल सरल सप्तपर्ण पूगफली खजूरी नालिकेरीणां वृक्षविशेषाणां वनानि तानि च बनानि कीदृशानि? इत्याह-'कुसबिकुस बिसुद्धरुक्खमूलाइ' कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूलानि कुशविकुशवर्जितवृक्षपद यह प्रकट करता है कि जगती के वन के वृक्षो के वर्णन में जितने विशेषण प्रशस्त बीज विशेषणतक प्रयुक्त किये गये हैं वे सब ही विशेषण इन वृक्षो के वर्णन करने में यहां पर भी गृहोत कर लेना चाहिये । वृक्षों का वर्णन पंचम सूत्रमें किया गया है तथा ये सब वृक्ष पत्रों से पुष्पों से, और फलों से भरे हुए रहते हैं । इस कारण ये अपनी शोभा से बहुत अधिक रूप में सुहावने हैं । "तीसे गं समाए भरहे वासे तत्थ तत्य बहवे भेरुतालवणाई, हेरुतालवणाई मेरुतालवणाई पमयालवणाई सालवणाई सरलवणाई सत्तवण्णवणाइ', प्यफलिवणाई,खज्जूरीवणाई, णालिएरीवणाई, कुसविकुस वसुद्धरुक्स्वमूलाई जाव चिटुंति" उसकाल में भारतवर्ष में जगह २ अनेक मेरुताल-वृक्षविशेषके वन होते हैं , हेरुतोल के वन होते हैं, मेरुताल के वन होते हैं, प्रभताल के वन होते हैं, सालवृक्षोके वन होते हैं, सरलवृक्षो के वन होते हैं, सप्तपर्णों के वन होते है, पूगफली सुपारीके वृक्षों के वन होते हैं खजू री-पिण्डखजूरो के वन होते हैं और नारियल के वृक्षो के वन होते हैं । इन वनो में रहे हुए इन वृक्षो के नीचे का भूभाग कुश-काश और विल्वादि लताओं से વિશેષ પ્રશસ્ત બીજ વિશેષ સુધી પ્રયુકત કરવામા આવેલ છે. તે સર્વ વિશેષણે આ વૃક્ષોના વર્ણનમાં અહી પણ ગૃહીત કરવા જોઈએ. વૃક્ષોનું વર્ણન પંચમ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. તેમ જ આ સર્વ વૃક્ષે પત્ર, પુષ્પ અને ફળેથી અલંકૃત રહે છે. એથી આ वृक्षा महु सुह२ ला संपन्न l गत थाय छे "तीसेण समाए भरहे वासे तत्थ २ बहवे मेरुतालवणाई, हेरुतालवणाई, मेरुतालवणाइ , पमयालवणाई, सालवणाई, सरलवणाई सत्तवण्ण वणाई, पूयफलिवणाई खज्जूरी वणाई, णालिएरी वणाइ कुसविकसविसद्ध रुक्खमलाई जाव चिति" ते मां भारतवमा मनोस તાલ–વૃક્ષ વિશેષ–ના વને હેાય છે હેરુતાલના વને હેય છે, મેરુતાલના વને હોય છે, પ્રભતાલના વનો હોય છે. સાલવૃક્ષના વનો હોય છે, સરલવૃક્ષેના વને હોય છે, સપ્તપ ના વને હોય છે, પૂગફલી-સેપારી-ના વૃક્ષના વને હોય છે, ખજૂરી–પિંડખજરેના વનો હોય છે. અને નારિયેલના વૃક્ષેના વને હોય છે. આ વને માં આવેલા વૃક્ષોની નીચેના ભૂમિ ભાગ કુશ-કાશ અને મિલવાદિ લતા એથી સર્વથા રહિત હોય છે. આ વૃક્ષે પણ પ્રશસ્ત મૂલ વાળા હોય છે. પ્રશસ્ત કંદવાળા હોય છે. ઈત્યાદિ રૂપ થી જે જે વિશેષ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy