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________________ प्रकाशिका टोका द्वि. वक्षस्कार सू. २२ सुषमसुषमाख्यावसर्पिण्याःनिरूपणम् १८९ अर्थोऽपि तत्रैव मत्कृतसुबोधिनी टीकातोऽवसेयः। तथा 'आसयंति सयंति' आसते शेरते इत्यादीनामर्थोऽस्यैवागमस्य षष्ठ सूत्रतो विज्ञेयः । केवलं 'शेरते' इत्यस्य अन्यो ऽर्थों बोध्यः । तत्र देवानां निद्राया अभावात् 'शेरते शय्योपरिशरीरप्रसारणमात्रं कुर्वन्ति इत्यर्थः मनुष्याणां तु शरीरप्रसारणस्य निद्रायाश्वापि संभवात् अत्र शेरते-शय्यो. परि शरीरं प्रसारयन्ति निद्रान्ति चेत्यर्थ इति । शिष्योपकारपरायणेन गुरुणा शिष्याऽविजिज्ञासितोऽपि विषयः स्वयं वक्तव्य इति प्रथमारकप्रभावजनितं भरतक्षेत्रभूमिसौभाग्यं सूचयितुमाह-तीसेणं इत्यादि । 'तीसेणं' तस्यां पूर्वोक्तायां खलु 'समाए' समायां सुषमसुषमायां 'भारहे-बासे वहवे' भरते वर्षे बहवः-अनेके 'उद्दाला कुद्दाला' उद्दालाः कुद्दालाः, 'कयमाला' कृतमालाः 'नट्टमाला दंतमाला नागमाला सिंगमाला संख माला सेयमाला णाम' नृतमालाः दन्तमालाः नागमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमालाः श्वेत मालाः नाम वें सूत्र से जान लेना चाहिये इन सूत्रोंके पदों की व्याख्या हमने उनकी सुबोधिनो टीका में कर दी है "आसते शेरते" इत्यादि क्रिया पदों की व्याख्या इसी आगम के छद्रे सूत्र में की जा चुकी है । "शेरते" शब्द का अर्थ यद्यपि सोना होता है पर वहां यह अर्थ विवक्षित नहीं हुवा है क्यो कि देवों को निद्रा का अभाव रहता है इसलिये इसका अर्थ केवल यहां पर शय्या के ऊपर वे देव और देवियां अपने अपने शरीर को पसार कर लेट जाती हैं ऐसा ही "शेरते" इस क्रियापद का अर्थ किया गया है पर यह अर्थ यहां नही किया है क्यों की मनुष्यों में शय्या के ऊपर शरीर प्रसारण भी देखा जाता हैं और निद्रा लेना भी देखा जाता है इसलिये शेरते क्रियापद का अर्थ यहां पर "वे लेटते भी हैं और निद्रा भी लेते है" ऐसा ही करना चाहिये इस नीति के अनुसार कि गुरु के द्वारा जो कि शिष्यों के उपकार करने में ही परायण रहते हैं शिष्यजनों द्वारा अविजिज्ञासित भी विषय स्वयं बताना प्रकट करना चाहिये, अब सूत्रकार भारतक्षेत्र की भूमि के सौभाग्य को सूचित करने के लिए कहते हैं 'तीसे णं समाए भरहे वासे बहवे उद्दाला कु૬૭ માં સૂત્ર થી તેમ જ મંડપ અને પૃથિવી શિલાપટ્ટકોનું વર્ણન ૬૮ મા સૂત્રથી કરવામાં આવેલ છે. આ સૂત્રોના પદોની વ્યાખ્યા તેની સુબોધિની ટીકામાં કરવામાં આવેલ छ. "आसते शेरते' त्याहि लियापहोनी व्याच्या मा २४ सामना ६ सूत्रमा ४२वामा मावत छे. “शेरते। शने अथले 'सु ' थाय छे. ५२'तुमही । अर्थ વિવક્ષિત નથી. કેમ કે દેવ સૂતા નથી. એથી આ શબ્દને અર્થ ફકત અહીં શય્યાની 6५२ हे सने हवा में। पाताना शरीर ने प्रसत ४१ २ वट छे, मडी 'शेरते' કિયા પદ ને અર્થ મનુષ્યના સંદર્ભમાં કરવામાં આવેલ છે. તે રૂપમાં કરવામાં આવેલ છે. મનુષ્યો શય્યા પર શરીરનું પ્રસારણ કરે છે અને નિદ્રાધીન પણ થાય છે. એથી 'शेरते' या पहने। अर्थ माता बेटे छ भने निद्राधीन पण थाय छे. सेवा કરવું જોઈએ. આ નીતિ મુજબ શિષ્યોના ઉપકારમાં રત ગુરુ શિષ્ય વડે અવિજિજ્ઞાસિત વિષયના સંબંધમાં પણ જાતે યથા સમય સ્પષ્ટતા કરતા રહે છે. તે મુજબ હવે સૂત્રકાર भरतक्षेत्रनी भूभिना सोमाय ने सूयित ४२१। भाटे ४ छ-"तीसेणं समाए भरहे वासे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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