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थे । श्रुतमुनिके ये भी विद्यागुरु थे, अर्थात् इनसे भी उन्होंने शास्त्राभ्ययन किया था।
४-चारुकीर्ति। ये नय, निक्षेप और प्रमाणके ज्ञाता, सारे परधर्मोको जीतनेवाले, बड़े बड़े राजाओंद्वारा पूजित, सारे शास्त्रोंके जाननेवाले और जिनमार्गपर वीरतासे चलनेवाले थे। __ कर्नाटककविचरितके कर्ताने श्रुतमुनिके गुरु बालचन्द्रका समय वि० सं० १३३० के लगभग बतलाया है। उनका कथन है कि बालचन्द्र मुनिने शक संवत् ११९५ (वि० सं० १३३० ) में द्रव्यसंग्रहकी एक टीका लिखी है
और उसमें उन्होंने अपने गुरुका नाम अभय चन्द्र लिखा है। इससे सिद्ध हुआ कि श्रुतमुनि विकमकी चौदहवीं शताब्दिके विद्वान् हैं और वि० सं० १३३० के लगभग उनका अस्तित्व था।
'चारुकीर्ति' यह श्रवणबेल्गोलके भट्टारकोंका स्थायी नाम है। अर्थात् वहाँके पट्ट पर जितने आचार्य होते हैं वे सब चारुकीर्ति पण्डिताचार्य कहे जाते हैं। कर्नाटककविचरितके कताके मतसे श्रवणबेलगोलके जैनगुरुओंने यह नाम वि० सं० ११७४ के बाद धारण किया है । तब पूर्वोक्त प्रशस्तिकी गाथाओंमें जिन चारुकीर्तिकी प्रशंसा की है वे दूसरे या तीसरे चारुकीर्ति होंगे।
आचार्य प्रभाचन्द्रको ' सारत्रयनिपुण ' विशषण दिया गया है और हमारी संग्रहकी हुई ग्रन्थसूची में नाटकसमयसार आदि तीनों ग्रन्थोंकी प्रभाचन्द्रकृत टीकाओंके नाम लिखे हुए हैं। अतः ये सारत्रयनिपुण और उक्त टीकाकार एक ही होंगे _श्रवणबेल्गोलमें श्रुतमुनिकी निषद्यापर मंगराज कविका ७५ पद्योंका एक विशाल संस्कृत शिलालेख है। शकसंवत् १३५५ (वि० सं० १४९०) में उक्त निषद्या प्रतिष्ठित हुई है। उसमें प्रधानतः श्रुतकीर्ति, चारुकीर्ति, योगिराट् पण्डिताचार्य और श्रुतमुनिकी महिमा वर्णन की गई है । कविने श्रुतमुनिकी प्रशंसाके तो पुल बाँध दिये हैं। वे बड़े भारी विद्वान् थे और उन्होंने समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया था। यदि निषद्याकी प्रतिष्ठाका समय ही उनके स्वर्गवासका समय है, तब तो कहना होगा कि ये श्रुतमुनि भावत्रिभंगीके कर्तासे कोई जुदा ही हैं और उनसे पीछे हुए हैं, परन्तु यदि स्वर्गवासके १००-१२५ वर्ष बाद निषद्यापर
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