SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावसंग्रहः । णहे असेसलोए पच्छा सो कत्थ चिदे रुद्दो । इक्को तमंधयारो गोरी गंगा गया कत्थ ।। २४२ ॥ नष्टेऽशेषलोके पश्चात् स कुत्र तिष्ठति रुद्रः । एकस्तमोऽन्धकारः (?) गौरी गंगा गता कुत्र ॥ जो डहइ एयगामं पावी लोएहिं बुच्चदे सो हु । जो पुण डहइ तिलोयं सो कह देवत्तणं पत्तो ।। २४३ ॥ __ यो दहीत एकप्रामं पापी लोकैरुच्यते स हि । यः पुनः दहति त्रिलोकं स कथं देवत्वं प्राप्तः ।। जो हणइ एयगावी विप्पो वा सो वि इत्थ लोएहिं। गोबंभहच्चयारी पभणिज्जइ पावकारी सो ॥२४४ ॥ यः हन्ति एका गां विप्रं वा सोऽपि अत्र लोकैः । गोब्रह्महत्याकारी प्रभण्यते पापकारी सः ॥ जो पुण गोणारिपमुहे वाले बुड़े असंखलोयत्थे । संहारेइ असेसं तस्सेव हि किं भणिस्साभो ॥ २४५॥ यः पुनः गोनारीप्रमुखान् बालान् वृद्धान् असंख्यलोकस्थान्। संहरति अशेषान् तमेव हि किं भणिष्यामः ॥ अहवा जइ भणइ इयं सो देवो तस्स हबइ ण हु पावं । तो बंभसीसछेए बंभहच्चा कहं जाया ॥ २४६॥ ___ अथवा यदि भणतीदं स देवः तस्य भवति न हि पापं । तर्हि ब्रह्मशिरश्छेदे ब्रह्महत्या कयं जाता ॥ किं हड्डमुंडमाला खंधे परिवहइ धूलिधूसरिओ। परिभमिओ तित्थाई गरह कवालम्मि भुंजंतो ॥ २४७॥ १एको ख. । २ ए ख. । ३ नर ख. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003153
Book TitleBhav Sangrahadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages328
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy