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परिणामि नित्य
सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं । अस्तित्व के समुद्र में होने वाली उर्मियों को पकड़ने वाले 'क्षणिकवाद' के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। जैन दर्शन ने इन दोनों को एक ही धारा में देखा, इसलिए उसने परिणामि नित्यत्ववाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।
भगवान् महावीर ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या परिणामि नित्यत्ववाद के आधार पर की। उसने पूछा- आत्मा नित्य है या अनित्य ? पुद्गल नित्य है या अनित्य ? उन्होंने एक ही उत्तर दिया- अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता । इस अपेक्षा से वे नित्य हैं । परिणमन का क्रम कभी अवरुद्ध नहीं होता, इस दृष्टि से वे अनित्य हैं । समग्रता की भाषा में वे न नित्य हैं और न अनित्य, किन्तु नित्यानित्य हैं ।
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तत्त्व में दो प्रकार के धर्म होते हैं— सहभावी और क्रमभावी । सहभावी धर्म तत्त्व की स्थिति के और क्रमभावी धर्म उसकी गतिशीलता के सूचक होते हैं सहभावी धर्म ‘गुण' और क्रमभावी धर्म 'पर्याय' कहलाते हैं । जैन दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है कि द्रव्य-शून्य पर्याय और पर्याय- शून्य द्रव्य नहीं हो सकता। एक जैन मनीषी ने कूटस्थनित्यवादियों से पूछा- पर्याय - शून्य द्रव्य किसने देखा ? कहां देखा ? कब देखा ? किस रूप में देखा ? कोई बताये तो सही। उन्होंने ऐसा ही प्रश्न क्षणिकवादियों से पूछा कि वे बताएं तो सही कि द्रव्य - शून्य पर्याय किसने देखा ? कहां देखा ? कब देखा ? किस रूप में देखा ? अवस्थाविहीन, अवस्थावान् और अवस्थान्विहीन अवस्थाएं में दोनों तथ्य घटित नहीं हो सकते। जो घटना क्रम चल रहा है, उसके पीछे कोई स्थाई तत्त्व है। घटना क्रम उसी में चल रहा है । वह उससे बाहर नहीं है। तालाब में एक कंकर फेंका और तरंगें उठीं । तालाब का रूप बदल गया । जो जल शांत था, वह क्षुब्ध हो गया, तरंगित हो गया । तरंग जल में है । जल में भिन्न तरंग का कोई अस्तित्व नहीं है। जल में तरंग उठती है इसलिए हम कह सकते हैं। कि तालाब तरंगित हो गया। तरंगित होना एक घटना है। वह विशेष अवस्थावान में घटित होती है । जलाशय नहीं है तो जल नहीं है। जल नहीं है तो तरंग नहीं है । तरंग का होना जल के होने पर निर्भर है । जल हो और तरंग न हो—ऐसा भी नहीं हो सकता । जल का होना तरंग होने के साथ जुड़ा हुआ है। जल और तरंग — दोनों एक-दूसरे में निहित हैं— जल में तरंग और तरंग में जल ।
द्रव्य पर्याय का आधार होता है। वह अव्यक्त होता है, पर्याय व्यक्त । हम द्रव्य कहां देख पाते हैं । हम देखते हैं पर्याय को । हमारा जितना ज्ञान है, वह पर्याय का ज्ञान है । मेरे सामने एक मनुष्य है । वह एक द्रव्य है । मैं उसे नहीं जान सकता ।
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