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________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में उसमें भस्म हो गए। मुनि सुदर्शन ने इस घटना को देखा और अपने साथ के मुनियों को सावधान कर वे कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो गए। महाज्वाला ने मुनिगण के चारों ओर ज्वाला प्रज्वलित की। पर वह सुदर्शन मुनि के आभा- वलय के पास तक नहीं पहुंच पा रही थी । महाज्वाला अपने प्रयत्न में असफल होकर लौट गई। उसने सुकर्ण से कहा- 'मैं जल रही हूं, मुझे शांत करो।' सुकर्ण ने पूछा - 'सुदर्शन को जला डाला ?' 'नहीं जला सकी' – महाज्वाला ने उत्तर दिया। सुकर्ण अपना धैर्य खो बैठा। उसने आक्रोशपूर्ण स्वर में कहा - 'देवी ! क्या तुम्हारी शक्ति नष्ट हो गई ? ऐसा क्यों हुआ ?' महाज्वाला ने कहा- 'उसके चारों ओर अभेद्य कवच है I उसे भेदकर मैं भीतर नहीं जा सकी ।' ६६ यह आभा-वलय, यह तैजस कवच कायोत्सर्ग की शक्ति का प्रतिबिम्ब है । साधारणतया दो स्थितियों में कायोत्सर्ग का विधान है— प्रवृत्ति के बाद और कष्ट के क्षणों में । प्रवृत्ति की सम्पन्नता होने पर कायोत्सर्ग करने से शारीरिक, स्नायुविक और मानसिक तनाव समाप्त हो जाता है । प्रवृत्ति के साथ उत्पन्न होने वाले दोष निरस्त हो जाते हैं / साधु जंगल में से गुजर रहे हैं । सामने से सिंह आया । वे कायोत्सर्ग में खड़े हो गए। सिंह चला गया। जैन साहित्य में इस प्रकार की घटनाएं प्रचुर मात्रा में मिलती हैं । इन घटनाओं के पीछे भी वास्तविकता है । कायोत्सर्ग करने वाला चेतना के उस तल में चला जाता है जिस तल में जाने पर तैजस शरीर की सक्रियता बढ़ जाती है । वह इतना आलोक विकीर्ण करता है कि उसके पास आने वाला निस्तेज हो जाता है । कायोत्सर्ग तैजस के विकिरण की एक रहस्यपूर्ण पद्धति है । वह चेतना के सूक्ष्मलोक में चले जाने पर अपने-आप घटित होती है । कायोत्सर्ग अवतरण की प्रकिया है । कोई व्यक्ति किसी बाह्य प्रभाव को ग्रहण करना चाहता है । वह तनाव की स्थिति में नहीं हो सकता । तनाव प्रतिरोध पैदा करता है । कायोत्सर्ग में शारीरिक शिथिलता आ जाती है। इसलिए उस स्थिति में दूसरे एकात्मकता स्थापित करने की सुविधा हो जाती है । शरीर से मन और ममत्व को हटा लेने पर पीछे केवल शरीर रह जाता है । जैसे ही मन का शिथिलीकरण होता है, वैसे ही शरीर का शिथिलीकरण हो जाता है और शरीर का शिथिलीकरण होने पर मन का शिथिलीकरण हो जाता है। हम लेट रहे हैं, बैठे हैं या खड़े हैं, कायोत्सर्ग इन तीनों मुद्राओं में किया जा सकता है । शरीर के एक-एक अंग पर शिथिलता का अनुभव करते चले जाएं। शिथिलता की भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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