SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में समाजशास्त्री मंकाइवर के अनुसार 'समाज सामाजिक संबन्धों का जाल है।' समाज सामाजिक सम्बन्धों की एक पद्धति है, जिसके द्वारा हम जीते हैं । 'समाजशास्त्री ग्रीन के अनुसार 'समाज एक बड़ा समूह है जिससे हर व्यक्ति संबद्ध है।' इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सम्बन्ध स्थापित होता है और जीने के लिए हर व्यक्ति के लिए सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक है। संवेदन न स्थापित होता है और न वह जीने के लिए आधारभूत है । वह स्वाभाविक है ! संवेदना की अपेक्षा से व्यक्ति वास्तविक है और जीवन यापन को अपेक्षा से समाज वास्तविक है। इन दोनों की वास्तविकता में कोई विरोध नहीं है। व्यक्ति समाज को वास्तविक मानकर ही सुखपूर्वक जी सकता है और समाज की वास्तविकता को ध्यान मे रखकर सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा कर सकता है। ___समाज-व्यवस्था के आधारभूत तत्त्व दो है—काम और अर्थ । काम की सम्पूर्ति के लिए सामाजिक सम्बन्धों का विस्तार होता है । अर्थ काम-संपूर्ति का साधन बनता है। धर्म (विधि-विधान) के द्वारा समाज की व्यवस्था का संचालन होता है। प्राचीन समाजशास्त्रियों में से कुछेक ने काम को मुख्य माना और कुछेक ने धर्म को। महामात्य कौटिल्य ने अर्थ को मुख्य माना। उन्होंने कहा--काम और धर्म का मूल अर्थ है। इसलिए इस त्रिवर्ग में अर्थ ही प्रधान है। आधनिक समाजवादी समाज-व्यवस्था में भी अर्थ की प्रधानता है । वह अर्थ पर ही आधारित है । अर्थाधारित समाज-व्यवस्था में व्यक्ति का स्वतन्त्र मूल्य नहीं हो सकता । व्यक्तिगत स्वतन्त्रता नियंत्रित किए बिना समाजवादी व्यवस्था फलित नहीं हो सकती। व्यक्ति अपने संवेदनों को जितना मूल्य देता है, उतना दसरों के संवेदनों को नहीं देता। इसलिए व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था में दो स्थितियां निर्मित हुईं-स्वार्थ की अपेक्षा और परार्थ की अपेक्षा । फलतः उस व्यवस्था से अप्रामाणिकता, अनैतिकता, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां पनपीं। इन बुराइयों से संत्रस्त समाज ने समाजवादी व्यवस्था के द्वारा स्वार्थ और परार्थ की खाई को पाटने का प्रयत्न किया । व्यक्ति को व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था जितना स्वतन्त्र मूल्य दिए जाने पर उस खाई को पाटा नहीं जा सकता। इसलिए इस व्यवस्था में व्यक्ति को समाज के एक पुर्जे का स्थान देना पड़ा। व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था में सामाजिक विषमता फलित होती है । उसमें कुछ लोग सम्पन्न होते हैं और जन-साधारण विपन्न रहता है। सम्पन्न लोग भोग-विलास में आसक्त रहते हैं। वे अपनी सख-सुविधा की ही चिन्ता करते हैं, दसरों के हितों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy