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________________ मानवीय एकता 'क्या जैन धर्म जाति नहीं है?' 'नहीं, सर्वथा नहीं। जाति का आधार आजीविका है, अर्थ-व्यवस्था है। धर्म का आधार आत्मा का अनुसंधान है। इसलिए सभी जातियों और वर्गों के लोग महावीर के शिष्य बने।' मैं अतीत के गर्भगृह से वर्तमान के वातायान में लौट आया। मैंने युगधारा का अवगाहन किया तो पाया कि महावीर की अ-मृत आत्मा युग-चेतना की पार्श्वभूमि में आज भी विद्यमान है। उनकी वाणी की प्रतिध्वनि आज भी अनन्त के कण-कण में हो रही है। उनके सिद्धान्त आज भी सर्वव्यापी हैं। महावीर ने सापेक्षवाद से विश्व की व्यवस्था की। उन्होंने कहा, एकता और अनेकता की धारा एक साथ प्रवाहित है। इस सह-अस्तित्व के प्रवाह में 'या तुम या मैं' के लिए कोई स्थान नहीं है। तुम्हारे बिना मैं और मेरे बिना तुम नहीं हो सकते। तुम और मैं एक साथ ही हो सकते हैं। संघर्ष वास्तविक नहीं है। घृणा वास्तविक नहीं है। वास्तविक है सहयोग, वास्तविक है समन्वय-अपने अस्तित्व के साथ दूसरों के अस्तित्व की स्वीकृति, अपने व्यक्तित्व की स्वीकृति।। __ 'मानवीय एकता' की स्वीकृति के साथ मानवीय अनेकता की स्वीकृति जड़ी है। 'सब मनुष्य एक हैं'-यह सापेक्ष सिद्धान्त है। सापेक्ष एकता अनेकता के बिना नहीं हो सकती। मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रकृति और व्यवस्था-कृत-अनेकताएं भी हैं। उनके आधार पर एक मनुष्य दुसरे मनुष्य से भिन्न हैं। यह मानवीय एकता और अनेकता की तथ्यात्मक स्वीकृति है। हावीर ने उक्त सिद्धान्त का धर्म के दृष्टिकोण से प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा-मनुष्य जाति में एकता अनेकता-दोनों के तत्त्व विद्यमान हैं और दोनों वास्तविक हैं । इसलिए ये धर्म का आधार नहीं बन सकते । यदि एकता के आधार पर हम मनुष्य जाति से प्रेम करें तो अनेकता के आधार पर द्वेष कैसे नहीं करेंगे? हम अनेकता को इसलिए द्वेष का आधार बनाते हैं कि एकता के आधार पर हम प्रेम करते हैं। इस द्वन्द्व के आधार पर होने वाला प्रेम धार्मिक का प्रेम नहीं होता। एकता और अनेकता के द्वन्द्व से परे जो द्वन्द्वातीत आत्मा की अनुभूति है वह धर्म है। इस धार्मिक दृष्टिकोण से मानवीय एकता का अर्थ होगा-मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा और संघर्ष की समाप्ति। महावीर ने धर्म की दृष्टि से मानवीय एकता की व्याख्या की, उसमें सम्प्रदाय को स्थान नहीं दिया। उसके मतानुसार कौन व्यक्ति किस सम्प्रदाय में दीक्षित है, उसे मूल्य नहीं दिया जा सकता । मूल्य इसका होगा कि कौन व्यक्ति कितना ऋजु, कितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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