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________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में और अचेतन द्रव्य के त्रैकालिक अस्तित्व और परिवर्तन का समन्वय सत्य और उनका विभाजन असत्य है । जब हम विश्व को हेय और उपादेय की दृष्टि से देखते हैं तब श्रेय सत्य है और प्रेय असत्य है ।' ज्ञान और कर्म का समन्वय महावीर न कोरे दार्शनिक थे और न कोरे धार्मिक । वे दर्शन और धर्म के समन्वयकार थे । उन्होंने सत्य को देखा, फिर चेतना के विकास के लिए अनाचरणीय का संयम और आचारणीय का आचरण किया । ६ महावीर ने कहा - अकेला ज्ञान, अकेला दर्शन (भक्ति) और अकेला पुरुषार्थ (कर्म) मनुष्य को दुःख-मुक्ति की ओर नहीं ले जाता । ज्ञान, दर्शन और आचरण का समन्वय ही उसे दुःख-मुक्ति की ओर ले जाता है। इस दर्शन के आधार पर उन्होंने इस सूत्र का प्रतिपादन किया- पहले जानो, फिर करो। ज्ञान-हीन कर्म और कर्महीन ज्ञान- ये दोनों व्यर्थ हो जाते हैं। ज्ञात सत्य का आचरण और आचरित सत्य का ज्ञान- ये दोनों एक साथ होकर ही सार्थक होते हैं । श्रद्धा : ज्ञान और आचार का सेतु ज्ञान और आचार के बीच में एक दूरी बनी रहती है । हम बहुत सारे सत्यों को जानते हैं, पर उनका आचरण नहीं करते। ज्ञान सीधा आचरण से नहीं जुड़ता है । उन दोनों को जोड़ने वाला सेतु श्रद्धा है । वह ज्ञात सत्य के प्रति आकर्षण पैदा करता है । आकर्षण पुष्ट हो जाता, तब ज्ञान स्वयं आचार बन जाता है । हम लोग समझते हैं कि जिसका ज्ञान न हो उसके प्रति श्रद्धा करनी चाहिए। महावीर ने ठीक इसके विपरीत कहा- जिसका ज्ञान हो जाए उसके प्रति श्रद्धा करनी चाहिए। श्रद्धा अज्ञान का संरक्षण नहीं करती। वह ज्ञान को आचरण तक ले जाती है। ज्ञान दुर्लभ है, श्रद्धा उससे भी दुर्लभ है, आचरण उससे भी दुर्लभ है। ज्ञान के परिपक्व होने पर श्रद्धा सुलभ होती है और श्रद्धा के सुलभ होने पर आचरण सुलभ होता है । आत्मा और परमात्मा महावीर ने किसी शास्त्र को ईश्वरीय ज्ञान नहीं माना। उन्होंने यह घोषणा की कि ज्ञान का मूल स्त्रोत मनुष्य है। आत्मा से भिन्न कोई परमात्मा नहीं है । आत्मा ही कर्मबन्धन से मुक्त होकर परमात्मा बनती है । उनके दर्शन में स्वतः प्रामाण्य शास्त्र का नहीं है, मनुष्य का है। वीतराग मनुष्य प्रमाण होता है और अन्तिम प्रमाण अपनी वीतराग दशा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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