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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
कहा–दार्शनिक को सबसे पहले नित्य और अनित्य का विवेक करना चाहिए । जो नित्य और अनित्य का विवेक नहीं रखता वह दार्शनिक नहीं हो सकता। प्रत्यक्ष दर्शन के अभाव में सत्य का प्रतिपादन नहीं कर सकता। महर्षि पतंजलि ने कहा-'नित्य को अनित्य और अनित्य को नित्य मानना अविद्या है।' शंकराचार्य ने कहा- 'ब्रह्म नित्य और जगत् अनित्य है।' उन्होंने नित्य और अनित्य-दोनों का प्रतिपादन किया किन्तु उनकी दृष्टि में ऐसा द्रव्य एक भी नहीं है जो नित्य भी हो और अनित्य भी हो । ब्रह्म नित्य ही है, वह अनित्य नहीं है । जगत् अनित्य ही है, वह नित्य नहीं है। जैन दर्शन इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखता है। उसकी दृष्टि का सार यह है—ब्रह्म अनित्य भी है और जगत् नित्य भी है। नित्य और अनित्य-दोनों के सह-अस्तित्व को कुछ दार्शनिक विरोधाभास मानते हैं और वे यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते, हैं कि यह जैन दर्शन का दृष्टि-भ्रम है। किन्तु जैन दार्शनिक इस आरोप को स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार द्रव्य की प्रकृति में सामंजस्य की अपूर्व क्षमता है। उसमें कोई विरोधाभास नहीं है। यह विरोधाभास हमारे व्यावहारिक दृष्टिकोण में है। द्रव्य की व्याख्या नैश्चयिक दृष्टिकोण से की जा सकती है, केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। आयार्य हेमचन्द्र ने महावीर की स्तुति में लिखा है-'आपकी आज्ञा को नहीं जानने वाले आकाश को नित्य और दीपक को अनित्य मानते हैं । आकाश जैसा है वैसा ही रहता है, इसीलिए वह नित्य है। दीपक की लौ आती है और चली जाती है । हवा का झोंका आता है और दीपक बुझ जाता है। इसीलिए वह अनित्य है।' महावीर का दर्शन इससे भिन्न है। उसकी दृष्टि में जैसे आकाश नित्य है वैसे दीपक भी नित्य है और जैसे दीपक अनित्य है वैसे आकाश भी अनित्य है। यह स्याद्वाद की मर्यादा है। कोई भी द्रव्य इसका अतिक्रमण नहीं करता । दीपक एक पर्याय है । वह विनिष्ट हो जाता है किन्तु उसका आधार-तत्त्व पुद्गल कभी नष्ट नहीं होता। आकाश आधारभूत तत्त्व है, वह कभी नष्ट नहीं होता। किन्तु घटाकाश, पटाकाश और गृहकाश—ये उसके पर्याय हैं । ये उत्पन्न
और विनिष्ट होते रहते हैं। हम आकाश को आधार-तत्त्व के रूप में ही देखते हैं, तब उसे केवल नित्य कहते हैं। हम दीपक को वर्तमान पर्याय के रूप में ही देखते हैं, तब उसे अनित्य कहते हैं। पर कोई भी आधार-तत्त्व से शून्य नहीं होता । इसलिए आकाश को अनित्य और दीपक को नित्य कहना दृष्टि का भ्रम नहीं, किन्तु यथार्थ
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