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________________ १० बन जाए और वह उससे अतिरिक्त हो तो हमारा ग्रहण और प्रतिपादन पूर्ण - सत्य का ग्रहण और प्रतिपादन नहीं होता । इस समस्या को सुलझाने के लिए अनेकान्त के आचार्यों ने एक मत सुझाया। उन्होंने कहा— प्रत्येक बुद्धि-विकल्प के साथ हम अपेक्षा को जोड़ें और प्रत्येक वचन - विकल्प के साथ हम 'स्यात्' का प्रयोग करें । इससे वक्ता और श्रोता - दोनों इस विषय में स्पष्ट रहेंगे कि जो समझा और कहा जा रहा है वह द्रव्य का एक धर्म है और वह द्रव्य के शेष अनन्त धर्मों में अविभक्त है । 'स्यात् ' शब्द से युक्त वचन - विकल्प स्याद्वाद कहलाता है । हम सापेक्षवाद और स्वाद्वाद के सहारे अनेकान्त को समझ सकते हैं और अनेकान्त के सहारे सत्य तक पहुंच सकते हैं । यह सत्य की उपलब्धि का वह उपाय है, जिसने संशय और आग्रह से मुक्त रहकर अनाग्रह और निश्चय का मणिकांचन योग किया है । प्रस्तुत पुस्तक में मैंने कुछ समस्याओं का अनेकान्त के दृष्टिकोण से मूल्यांकन किया है । यह सर्वग्राही दृष्टिकोण समस्याओं के समाधान का महत्त्वपूर्ण साधन है । अपेक्षा है कि हम इसका मूल्यांकन करें । आचार्यश्री तुलसी मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं । उनकी एक प्रेरणा अनेक रूपों में प्रतिबिम्बित हो जाती है । उक्त ग्रंथ में भी प्रतिबिम्बित सुदृष्ट है I इस ग्रंथ के संपादन का कार्य मुनि दुलहराजजी ने किया है। वे मेरी कृति का, लेखन के अतिरिक्त, सारा दायित्व सम्हाल कर मेरे कार्य को सरल बना देते हैं और मैं सदा अपने को भारमुक्त अनुभव करता हूं । कॉफी समय से प्रतीक्षारत इस पुस्तक का नवीन संस्करण भी प्रत्येक वर्ग के लिए ग्राह्य, उपादेय होगा । इसी आशा और आश्वासन के साथ -- Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य महाप्रज्ञ www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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