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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
'कालोदायी ! क्या तुम जानते हो कि मछली पानी में तैरती है?' 'हां भंते ! जानता हूं।' 'तैरने की शक्ति मछली में है या पानी में ?' 'भंते ! तैरने की शक्ति मछली में है।' 'तो क्या वह पानी बिना तैर सकती है?' 'नहीं, भंते ! ऐसा नहीं हो सकता।'
'मछली को तैरने के लिए पानी की अपेक्षा है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल को गति करने के लिए तत्त्व की अपेक्षा है। जो द्रव्य जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षित सहयोग करता है, उसे मैं धर्मास्तिकाय कहता हूं। ___ मछली पानी के बाहर आती है और भूमि पर आ स्थिर हो जाती है। स्थिर होने की शक्ति मछली में है किन्तु भूमि उसे स्थिर होने में सहारा देती है । जीव और पुद्गल में स्थिति की शक्ति है। उनकी स्थिति में जो अपेक्षित सहयोग करता है, उस स्थिति-तत्त्व को मैं अधर्मास्तिकाय कहता हूं।
__ 'गति-तत्त्व और स्थिति-तत्त्व दोनों अस्तिकाय हैं । इनकी अविभक्त प्रदेश-राशि आकाश के बृहद् भाग में फैली हुई है। आकाश के जिस खण्ड में ये हैं, वहां गति है, स्पन्दन है, जीवन है और परिवर्तन है। इस आकाश-खण्ड को मैं लोक कहता हूं। इससे परे जो आकाश-खण्ड है, उसे मैं अलोक' कहता हूं। लोक का आकाश-खण्ड सांत है, ससीम है । अलोक का आकाश-खण्ड अनन्त है, असीम है । _ 'तुम देख रहे हो कि यह पेड़, यह मनुष्य, यह मकान कहीं न कहीं टिके हुए हैं। तुमने देखा है कि पानी घड़े में टिकता है। घड़ा फूट जाता है, पानी ढुलक जाता है। पानी को टिकने के लिए कोई आधार चाहिए । इसी प्रकार द्रव्य को भी आधार की अपेक्षा होती है। एक द्रव्य अस्तित्व में है, उसमें आधार देने की क्षमता है उसे मैं आकाशास्तिकाय कहता हूं।'
'तुम देख रहे हो सामने एक पेड़ है। क्या देख रहे हो ?' 'क्या उसकी सुगंध नहीं आ रही है?' 'भंते ! हैं।' 'इसकी कोमल पत्तियों का स्पर्श मन को आकर्षित नहीं करता?'
'कालोदायी ! जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता है, उसे मैं पुद्गलास्तिकाय कहता हूं।'
'मैने अस्तिकायों को जाना है, देखा है। इसीलिए मैं पांच अस्तिकायों का
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