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अध्यात्म के परिपार्श्व में
निशाना बनाया गया है। मनुष्य के इन काले करतूतों को देखकर वज्रवत प्राण भी करुणार्द्र हो जाते हैं, करुणा से पिघल जाते हैं। इस प्रकार के अमानवीय, राक्षसो दुर्व्यवहार पर मानवता न जाने कब तक सिर धुनकर पछताती रहेगी। हम यह क्यों नहीं समझते कि मन्दिर मस्जिद एक ही पूजागृह के दो नाम हैं। सब में एक ही आध्यात्मिक ज्योति विद्यमान है-- .
उसके फरोगे-हुस्न से झलके हैं सब में नूर,
शम्मे-ए हरम हो या दीया सोमनाथ का। गुरुनानक ने भी कहा है कि जितने मनुष्य हैं उनमें एक खुदा का नूर भरा हुआ है । वह मनुष्य से कहते हैं कि तू ईश्वर की ज्योति स्वरूप है, अपने को पहचान
____मन तू जोति सरूप है
अपना मूल पछान । एक और स्थान पर गुरुनानकजी कहते हैं कि वह व्यक्ति महान् है जो सच को अपना व्रत मानता है। ज्ञान-ध्यान में स्नान कर अपने को पवित्र रखता है । दया को अपना इष्ट मानता है और क्षमा को जप करने की माला समझता है
सच व्रत संतोखी तीर्थ ज्ञान ध्यान इसनान,
दया देवता खिमा जपमाली ते माणस प्रधान ।
आचार्यश्री तुलसी का अणुव्रत भी क्षमा, दया, सत्य की त्रिवेणी में स्नान कराने वाला है । उसमें शाश्वत धर्म का, मानव-धर्म का सम्यक्, प्रतिपादन हुआ है । जब हम इस्लाम धर्म के परिप्रेक्ष्य में आचार्यश्री तुलसी के म नव-धर्म के प्रचारक अगुव्रत को देखते हैं तो वहां भी हमें अत्यधिक साम्य परिलक्षित होता है। कुरान शरीफ में कहा गया है कि तुम एक-दूसरे पर जियादती (अत्याचार) न करो, लोगों में सुलह कराओ, न्याय से काम लो, खुदा इन्साफ करने वालों को पसंद करता है । तुम एक -दूसरे की खिल्ली मत उड़ाओ, न किसी को ताना मारो, न अपनाम से पुकारो। (सूर : हुजुरात) और जमीन में फसाद मत फैलाओं (अल-एराफ)। यहां साम्प्रदायिक दंगों को रोकने की ताकीद की गई है और लड़ाने के बजाय मेलजोल, भाईचारा बढ़ाने पर बल दिया है । अहंकार और तकब्बुर को ख़ुदा ने पसंद नहीं किया। एक स्थान पर स्पष्ट शब्दों में उल्लेख है-लोगों को अच्छे कामों, सत्कर्मों की नसीहत दिया करो और बुरे कामों, दुष्कर्मों से दूर रहने का मशवरा दिया करो। जमीन पर इतराकर, अहंकार में भर कर मत चलो, अपनी चाल को, एतदाल पर रखो, अपनी आवाज भी पस्त रखो यानी ऊंची आवाज में मत बोलो। (सूर : लुकमान) अल्लाह अच्छे काम करने वालों को पसंद करते हैं,
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