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१. संकल्प विश्वास की सुरक्षा का
अणुव्रत पाक्षिक का एक स्तम्भ है- 'मेरा विश्वास है' । सन् १८८४ से इस स्तम्भ के अन्तर्गत मैं अपने विचार दे रहा हूं। राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, शैक्षणिक आदि विभिन्न सन्दर्भों में मैंने सकारात्मक दृष्टि से सोचा और ऐसा विश्वास व्यक्त किया, जो लोकजीवन को विश्वास के धागों में आबद्ध कर सके । किन्तु एक दशक की विचारयात्रा का विश्लेषण करता हूं तो पाता हूं कि विश्वास का धरातल ठोस नहीं है । ऊपर-ऊपर से हर व्यक्ति दूसरों को अपने विश्वास में लेना चाहता है । पर भीतर-ही-भीतर सन्देह की नागफनी सिर उठाए खड़ी रहती है । जब व्यक्ति स्वयं किसी का विश्वास नहीं करता तो दूसरे उसका विश्वास कैसे कर पाएंगे। अविश्वास की पटरी पर जीवन की गाड़ी चल रही है । कहा नहीं जा सकता, कब कहां दुर्घटना घटित हो जाए ।
डॉक्टर रोगी की चिकित्सा करता है । पर रोगी को यह विश्वास नहीं होता कि उसकी चिकित्सा सही हो रही है । क्योंकि वह जानता है कि उसके डॉक्टर का कई लोगों के साथ अनुबंध है। दवा निर्माता और दवा विक्रेता के साथ उसका अनुबंध है। एक्सरे मशीन वाले के साथ अनुबंध है । ब्लड, यूरिन आदि टेस्ट करने वाले के साथ अनुबंध है, और भी कई लोगों के साथ अनुबंध है। उसके हाथ से लिखी पर्ची देखकर सम्बन्धित व्यक्ति डॉक्टर के खाते में एक निश्चित राशि जमा कर देता है। जहां आर्थिक बुनियाद पर चिकित्सा होती है, वहां रोगी डॉक्टर के प्रति विश्वस्त कैसे रह सकता है ?
नेता चुनाव में प्रत्याशी बनते हैं, उस समय जनता से सीधा सम्पर्क करते हैं। उसके सुख-दुःख को सुनते हैं । उसे दुःख- दुविधा दूर करने का आश्वासन देते हैं। चुनाव घोषणापत्रों में बड़े-बड़े वादे करते हैं । किन्तु चुनाव
संकल्प विश्वास की सुरक्षा का : १
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