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________________ कुछ कानून भी ऐसे हैं, जो व्यक्ति को आर्थिक असदाचार की दिशा में धकेलते हैं। टैक्सों को लेकर लोग ऐसी ही समस्या का अनुभव करते हैं। अणुव्रत ने प्राथमिक रूप में इस क्षेत्र में भी कोई दखलन्दाजी नहीं की। वास्तव में अणुव्रत किसी ऐसे आदर्श की बात नहीं करता, जिस पर कोई आदमी चल ही न सके । कठिनाई का जहां तक प्रश्न है, कुछ तो त्याग करना ही होगा। जीवन में कठिनाई आए ही नहीं तो व्रती बनने और न बनने में अन्तर क्या रहेगा? जिस युग में ऐसी कोई कठिनाई नहीं होगी, उस युग में अणुव्रती बनने का अर्थ ही क्या होगा? मुझे ऐसा लगता है कि व्रत पालन में आने वाली कठिनाइयों से भी अधिक कठिनाई मानसिक दुर्बलता की है। मनोबल प्रबल हो तो अणुवत का मार्ग सीधा राजमार्ग प्रतीत हो सकता है। जिज्ञासा-क्या अणुव्रत का दर्शन व्यक्ति के अर्थप्रधान दृष्टिकोण को बदलने में सक्षम है? क्योंकि ऐसा हुए बिना प्रगति वस्तुतः प्रतिगति ही होती है? __समाधान-अणुव्रत का दर्शन जीवन के किसी एक ही विकृत दृष्टिकोण के परिमार्जन का लक्ष्य लेकर निर्धारित नहीं हुआ है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, पारिवारिक और वैयक्तिक-सभी क्षेत्रों में घुसी हुई विकृतियों का सुधार करना अणुव्रत का लक्ष्य है। आज स्थिति ऐसी बन गयी है कि जीवन का कोई भी पक्ष निर्मल नहीं रहा है। अर्थप्रधान दृष्टिकोण ने सिद्धांतों और नीतियों को भी ताक पर रख दिया है। स्वार्थचेतना का सूरज इतना तेज प्रकाश फेंकता है कि मनुष्य की आंखें चुंधिया गई हैं। अणुव्रत का दर्शन स्पष्ट है, निर्विवाद है। उसका प्रयोग परस्मैपद की भाषा में न होकर आत्मनेपद की भाषा में हो, यह आवश्यक है। अर्थप्रधान दृष्टिकोण को बदलने का सबसे छोटा, सीधा और कारगर प्रयोग यह है कि अर्थ को जीवन का साध्य नहीं, जीवनयापन का साधन मात्र माना जाए। जिज्ञासा-अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय वर्तमान युग की प्रबल अपेक्षा है। अणुव्रत अध्यात्म के हिमालय से प्रवाहित एक स्रोत है। क्या उसकी कोई वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है? समाधान-अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का एक छोटा-सा उदाहरण है अणुव्रत। भगवान् महावीर महान् वैज्ञानिक थे। उन्होंने प्रयोगशाला में १४६ : दीये से दीया जले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
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