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पाएगा। इसी दृष्टि से हमने योगक्षेम वर्ष में आध्यात्मिकवैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण का सपना देखा था। अध्यात्म-निरपेक्ष विज्ञान और विज्ञान-निरपेक्ष अध्यात्म अधूरा है। इसी दृष्टि से कहा गया है--
कोरी आध्यात्मिकता युग को प्राण नहीं दे पाएगी, कोरी वैज्ञानिकता युग को त्राण नहीं दे पाएगी,
दोनों की प्रीति जुड़ेगी,
युगधारा तभी मुड़ेगी, क्या-क्या पाना है, पहले आंक लो।
ओ सन्तो! क्या-क्या पाना है ? गहरे झांक लो ॥ अपेक्षा है, अध्यात्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक बनें। सत्य को जानना एक बात है और उसे जीना एक बात है। जानने मात्र से सत्य जिया नहीं जाता और जीने मात्र से वह जाना नहीं जाता। मनुष्य का प्रस्थान उभयमुखी हो-- वह जाने और जिए। जानने का आनन्द जीवन के साथ जुड़कर बहुगुणित हो जाता है। इसी प्रकार जीने के आनन्द को ज्ञानपूर्वक शतगुणित किया जा सकता है।
चिरकाल से बिछुड़े हुए दो भाई सायास या अनायास जब कभी मिलते हैं, उनके विकास की संभावनाओं के नए द्वार खुल जाते हैं। अध्यात्म और विज्ञान-- दो ऐसे सहोदर हैं, जो दीर्घकाल से बिछुड़े हुए हैं। दोनों एक-दूसरे के वियोग में रिक्तता का अनुभव कर रहे हैं। युग का तकाजा है कि दोनों भाइयों का मिलन हो, शान्त सहवास हो। ऐसा होने से ही मनुष्य के जीवन की जटिलताएं कम हो पाएंगी। अध्यात्म और विज्ञान का योग ही सुख और शान्ति का पथ प्रशस्त कर पाएगा।
आवश्यक है दो भाइयों का मिलन : १३७
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