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बाढ़, कहीं भूकम्प, कहीं तूफान, कहीं ज्वालामुखी का फटना और भी न जाने कितने रूप हैं दुर्घटनाओं के। और कोई कारण नहीं मिलता है तो मनुष्य स्वयं ही मृत्यु के लिए आमादा हो जाता है। आत्महत्या के भी नए-नए रूप विकसित हो रहे हैं। उन्हें देखकर कहना पड़ता है-यह युग एक्सीडेंट का युग है।
__ अपराध बढ़ रहे हैं, यह चिन्ता का विषय है। इससे भी अधिक चिन्तन इस बात पर हो कि अपराध क्यों बढ़ रहे हैं? वह कौन-सी प्रेरणा है, जो मनुष्य को अपराधी बनाती है ? हत्या, मारपीट, राहजनी, डाका, बलात्कार, अपहरण आदि प्रवृत्तियों का उत्स क्या है? मनुष्य इतना क्रूर कैसे हो गया? वह आदमी को गाजर-मूली की तरह काटता है। निरपराध लोगों को सामूहिक रूप में गोलियों से भून देता है। ऐसी घटनाएं रात के अंधेरे में नहीं, दिन में हो जाती हैं। एकान्त बीहड़ों में ही नहीं, शहर के बीच में हो जाती हैं। दर्शक देखते रह जाते हैं। उनमें इतनी दहशत व्याप जाती है कि न उनके मुंह से शब्द निकलते हैं और न हाथ हरकत में आते हैं। अपराध करने वाले बिना डरे, बिना सहमे निश्चिन्त होकर अपने गन्तव्य तक पहुंच जाते हैं। उसके बाद फुसफुसाहटें शुरू होती हैं। यह सब कब तक चलता रहेगा?
दुर्घटना का शिकार होने वाला चला जाता है। वह अपने पीछे छोड़ जाता है शोकसंकुल परिवार का क्रन्दन। दुर्घटनाएं इरादतन नहीं होती, पर उनके पीछे भी कुछ कारण हैं। एक बड़ा कारण है शराब। ड्राइवर शराब पीकर अन्धाधुंध बसें चलाते हैं, ट्रक चलाते हैं, कारें चलाते हैं और हादसे हो जाते हैं। अणुव्रत का एक नियम है- मादक व नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करना । छोटा-सा नियम, बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं को टाल सकता है। काश! मनुष्य इसकी महत्ता को समझे। कुछ दुर्घटनाएं प्राकृतिक होती हैं। कुछ यंत्रों में गड़बड़ी होने से होती हैं। उनको टालना असंभव प्रतीत हो सकता है। पर जो संभव है, उसे असंभव क्यों बनाया जाए?
__ हत्या, अपहरण आदि प्रवृत्तियों के पीछे मनुष्य की जो मनोवृत्ति है, उसको परिमार्जित किए बिना अपराधों के आंकड़ों में कमी नहीं आ सकती। जब तक मन का मार्जन नहीं होगा, पग गलत रास्तों में बढ़ते रहेंगे। मन
१३२ : दीये से दीया जले
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