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अतीत के क्रम को दोहरा देता है, तब उससे क्या आशा की जाए? कैसा आश्वासन पाया जाए ? और शिक्षा को जीवन के साथ कैसे जोड़ा
जाए?
मेरा परामर्श तो यह है कि शिक्षापद्धति की श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए अब कोई नया आयोग न बैठे। एक के बाद एक शृंखलाबद्ध गोष्ठियों और सेमिनारों का आयोजन भी न हो। हो तो एक ऐसी संगोष्ठी हो, जिसमें वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, शिक्षाशास्त्री, शिक्षक, साहित्यकार, राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तियों का उचित प्रतिनिधित्व हो। सब लोग मिलकर भारत की आकांक्षाओं, जरूरतों
और बुनावट को ध्यान में रखकर कोई ऐसा सर्वमान्य निर्णय लें, जिसकी क्रियान्विति में किसी प्रकार की बाधा न हो। इस पृष्ठभूमि पर जो भी निर्णय होगा, वह मूल्याधारित शिक्षा के प्रश्न को अनदेखा नहीं करेगा।
मूल्य क्या है? जो जीवन के मूलभूत तत्त्व हैं, उन्हीं का नाम मूल्य है। जो जीवन को बनाने या संवारने वाले मौलिक तत्त्व हैं, उन्हीं का नाम मूल्य है। जहां मौलिकता समाप्त हो जाती है, वहां विजातीय तत्त्वों को खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है। सरलता, सहनशीलता, कोमलता, अभय, सत्य, करुणा, धृति, प्रामाणिकता, संतुलन आदि ऐसे गुण हैं, जिनको जीवन-मूल्यों के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। एक शिक्षित व्यक्ति के जीवन में उक्त मूल्यों का समावेश नहीं होगा तो इनको कहां खोजा जाएगा ? मुझे आश्चर्य है कि मूल्यपरक शिक्षा की बात अब सामने आई है। क्या अब तक जीवन-मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जाती थी ?
जिस समय शिक्षा के साथ मूल्यों के समावेश की चर्चा ही नहीं थी, उस समय भी इस देश की नानियां और दादियां अपने नातियों को कहानीकिस्सों के माध्यम से अच्छी बातें सिखाती थीं। मुझे भी बचपन में कहानी सुनने का शौक था। सभी बच्चों को रहता होगा। पर आज उन कहानियों का स्थान टी. वी. सीरियलों और कोमिक्स ने ले लिया है। उनके द्वारा जो संस्कार परोसे जाते हैं, वे ही जीवन को प्रभावित करते हैं। जैसी संगत वैसी रंगत-यह कहावत गलत नहीं है। संगत के कारण एक तोता
६६ : दीये से दीया जले
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