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कर देते हैं, इसलिए उनके लिए इस उपमा का वैशिष्ट्य है ।
सूरज प्रकाश का पुञ्ज है। वह अन्धकार को दूर कर चमकता है । पर उसकी अपनी सीमाएं हैं। वह सीमित समय तक चमकता है। समय की सीमा पूर्ण होते ही वह अस्ताचल की ओट में चला जाता है और धरती पर पुनः अन्धकार का साम्राज्य छा जाता है । अस्ताचल की ओर जाते समय सूर्य एक प्रश्नचिह्न छोड़ता है और अपनी अनुपस्थिति में किसी सबल व्यक्ति को प्रकाश फैलाने का दायित्व देना चाहता है । किन्तु चारों ओर एक सपाट मौन फैल जाता है । कोई भी इतना साहस नहीं जुटा पाता । उस समय नन्हा सा दीपक खड़ा होकर आत्मविश्वास के साथ कहता है- आप निश्चिन्त होकर जाइए । मैं रात भर जागृत रहूंगा। अपने सामर्थ्य के अनुसार अन्धकार से लडूंगा और संसार में प्रकाश के अस्तित्व को बचाकर रखूंगा ।
समय बदला, लोगों की जीवन-शैली बदली, मकान बदले, उपकरण बदले और प्रकाश के साधन भी बदल गए। अब दीये का प्रकाश साहित्य की परिधि में सिमट कर रह गया । घर-घर में बल्बों और ट्यूबलाइटों की जगमगाहट आ गई है। दीये की मद्धिम रोशनी देखने के लिए आंखें तरस कर रह जाती हैं। दीपमालिका के अवसर पर कुछ घरों की मुंडेरों पर माटी के दीयों की कतारें अवश्य जगमगाती हैं, पर वे भी डेलाइट्स की चकाचौंध में फीकी होकर रह जाती हैं। अब न तो चांद-तारों में वह चमक दिखाई देती है और न दीयों में वह रोशनी । ऐसे समय में दीयों की बात करना भी पिछड़ेपन का प्रतीक माना जा सकता है। किन्तु जिस देश के ऋषि-मुनि भारतीय संस्कृति के मूल से जुड़े हुए हैं, वे अपने गौरवमय अतीत की विस्मृति नहीं कर सकते ।
आज हम जिस युग में जी रहे हैं, माटी के दीये की बात ही क्या, मनुष्य के विश्वास का दीया भी बुझ रहा है। एक समय था, जब भारतीय चिन्तनधारा का प्रवाह इस रूप में बहता था
वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्, वित्तमायाति याति च । अक्षीणो वित्ततः क्षीणः, वृत्ततस्तु हतो हतः ॥
पुरुषार्थ का प्रयोग कर वृत्त - चरित्र की सुरक्षा करो। वित्त-धन आता-जाता रहता है । उसकी चिन्ता छोड़ो। धन से क्षीण व्यक्ति कभी क्षीण
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