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________________ भगवान अभिनन्दननाथ (चिन्ह-कपि) भगवान अभिनन्दन संभवनाथ के पश्चात् अवतरित चौथे तीर्थंकर हैं। भगवान अभिनन्दन का जीवन, कृतित्व और उपलब्धियाँ जीवन-दर्शन के इस तथ्य का एक सुदृढ़ प्रमाण है कि महान कार्यों के लिए पूर्वभव की श्रेष्ठता और आदि की प्रवृत्तियों के सघन अपनाव द्वारा महात्मा और क्रमश: परमात्मा का गौरव प्राप्त कर सकता है। पूर्वभव प्राचीन काल में रत्नसंचया नाम का एक राज्य था। रत्नसंचया का राजा था-महाबल। जैसा राजा का नाम था वैसी विशेषताएँ भी उसमें थीं। वह परम पराक्रमी और शूर- वीर नरेश था। उसने अपनी शक्ति से अपने राज्य का सुविस्तार किया। समस्त शत्रुओं के अहंकार को ध्वस्त कर उसने अनुपम विजय गौरव का लाभ किया। इन शत्रु राज्यों को अपने अधीन कर उसने अपनी पताका फहरा दी। इस रूप में उसे अपार यश प्राप्त हुआ। सर्वत्र उसकी जय-जयकार गूंजने लगी थी। पराक्रमी महाराज महाबल के जीवन में भी एक अतिउद्दीप्त क्षण आया। उसे आचार्य विमलचन्द्र के उपेदशामृत का पान करने का सुयोग मिला, जिसका अनुपम प्रभाव उस पर हुआ। अब राजा ने अपनी दृष्टि बाहर से हटाकर भीतर की ओर करली। उसका यह गर्व चूर-चूर हो गया कि मैं सर्वजेता हूँ, मैंने शत्रु- समाज का सर्वनाश कर दिया है। उसने जब अन्तर में झाँका तो पाया कि अभी अनेक आन्तरिक शत्रु उसकी निरन्तर हानि करते चले जा रहे हैं। उसने अनुभव किया कि मैं काम-क्रोधादि अनेक प्रबल शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ। ये शत्रु ही मुझ पर नियंत्रण जमाए हुए हैं और इनके संकेत से ही मेरा कार्य-कलाप चल रहा है। मैं सत्ताधीश हूँ इस विशाल साम्राज्य का किन्तु दास हूँ इन विकारों का। इनके अधीन रहते हुए मैं विजयी कैसे कहला सकता हूँ। चिंतनशील महाराज महाबल के मन में ज्ञान- दीप प्रज्वलित हो गया जिसके आलोक में ये आन्तरिक शत्रु अपने भयंकर वेश में स्पष्टत: दिखायी देने लगे। इनको विनष्ट करने का दृढ़ संकल्प धारण कर महाबल इस नए युद्ध के लिए साधन-सामग्री जुटाने के प्रयोजन से संसार-विरक्त हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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