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भगवान ऋषभदेव
में ध्यानस्थ खड़े हो गये और तपस्या करने लगे। घोर तप उन्होंने किया। एक वर्ष तक सर्वथा अचंचल अवस्था में ध्यान- लीन खड़े रहे, किन्तु इच्छित केवलज्ञान की झलक तक उन्हें दिखाई नहीं दी।
भगवान ने अपने पुत्र की इस स्थिति को जान लिया और ब्राह्मी एवं सुन्दरी को उसके पास बोध देने के लिए भेजा। बहनों ने भाई को मधुर-मधुर स्वर लहरी में सम्बोधित कर कहा-'तुम हाथी पर आरूढ़ हो। हाथी पर बैठे-बैठे केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। नीचे उतरो और उस अक्षय आनन्द को प्राप्त कर लो।'
बाहुबली ने बहनों का कथन सुना और आश्चर्यचकित रह गया। सोचने लगा मैं तो भूतल पर खड़ा तपस्या कर रहा हूँ। मेरे लिए हाथी पर आरूढ़ होने की बात कैसे कही जा रही है? किन्तु ये साध्वियाँ हैं और साध्वियों का कथन कभी असत्य या मिथ्या नहीं होता। क्षणभर में ही वे समझ गये कि मेरा दर्प ही हस्ती का प्रतीक है। हाँ, मैं अभिमान के हाथी पर तो बैठा हुआ ही हूँ। यह बोध होते ही उसका सारा दर्प चूर-चूर हो गया। अत्यन्त विनय के साथ अपने अनुजों को श्रद्धा सहित प्रणाम करने के विचार से वे ज्यों ही कदम बढ़ाने को प्रस्तुत हुए कि तत्क्षण केवलज्ञान-केवलदर्शन का दिव्य आलोक जगमगा उठा।
भरत द्वारा निर्वाण प्राप्ति
अखंड भारत के एकछत्र साम्राज्य का सत्ताधीश होकर भी सम्राट् भरत के मन में न तो वैभव के प्रति आसक्ति का भाव था और न ही अधिकारों के लिए लिप्सा का। सुशासन के कारण वह इतना लोकपयि हो गया था कि उसी के नाम को आधार मान कर इस देश को भारत अथवा भारतवर्ष कहा जाने लगा। सुदीर्घकाल तक वह शासन करता रहा, किन्तु केवल दायित्व पूर्ति की कामना से ही; अन्यथा अधिकार, सत्ता, ऐश्वर्य आदि , के भोग की कामना तो उसमें रंचमात्र भी नहीं थी।
भगवान ऋषभदेव विचरण करते-करते एक समय राजधानी विनीता नगरी में पधारे। यहाँ भगवान से किसी जिज्ञासु द्वारा एक प्रश्न पूछा गया, जिसके उत्तर में भगवान ने यह व्यक्त किया कि चक्रवर्ती सम्राट् भरत इसी भव में मोक्ष की प्राप्ति करेंगे। भगवान की वाणी अक्षरश: सत्य घटित हुई। इसका कारण यही था कि साम्राज्य के भोगोपभोगों में वह मात्र तन से ही संलग्न था, मन से तो वह सर्वथा निर्लिप्त था। सम्यग्दर्शन के आलोक से उसका चित्त जगमग करता रहता था। उन्हें अन्तत: केवलज्ञान, केवलदर्शन उपलब्ध हो गया। कालान्तर में उन्हें निर्वाण पद की प्राप्ति हो गयी और वे सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गये।
परिनिर्वाण
दीक्षित होकर भगवान ऋषभदेव ने तप और साधना द्वारा केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की। केवली बनकर उन्होंने अपनी प्रभावपूर्ण देशनाओं द्वारा असंख्य जनों के लिये
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