________________
भगवान महावीर स्वामी
151
धर्म-पन्थों और विचाराधाराओं का संगम-स्थल हो गया था। भगवान की देशना सरल भाषा में थी और सामयिक समस्याओं के नवीनतम निदान लिए हुए थी। पंडितों के प्रवचन अप्रचलित संस्कृत में थे और आडम्बरपूर्ण, पुरातन और असामयिक होने के कारण उनके विषय भी अग्राह्य थे।
प्रभु जीव-अजीव, पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष, लोक-अलोक, आस्रव-संवर आदि की अत्यन्त सरल व्याख्या कर जन-जन को प्रतिबोधित कर रहे थे। इस देशना से उपस्थित जनों को विश्वास होता जा रहा था कि यज्ञ के नाम पर पशुबलि हिंसा है। प्राणिमात्र से स्नेह रखना, किसी को कष्ट न पहुँचाना, किसी का तिरस्कार न करना आदि नये अनुसरणीय आदर्श उनके समक्ष स्थापित होते जा रहे थे। आत्मा से परमात्मा बनने की प्रेरणा
और उसके लिए मार्ग उन्हें मिल रहा था। इसके लिए पंचव्रत निर्वाह का उत्साह भी उनमें जागने लगा था। ये व्रत थे-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। भगवान की देशना में स्याद्वाद और अनेकांतवाद की महिमा भी स्पष्ट होती जा रही थी।
उधर यज्ञ में इन्द्रभूति गौतम वेद मन्त्रोच्चार के साथ यज्ञाहुतियाँ देता जा रहा था। अपने पाण्डित्य का उसमें दर्प था। देवताओं के विमानों को आकाशमार्ग में देख कर इन्द्रभूति गौतम का गर्व और अधिक बढ़ गया, किन्तु उसे धक्का तब लगा जब ये विमान यज्ञ-भूमि को पार कर समवसरण स्थल की ओर बढ़ गए। उसके मन में इससे जो हीन भावना जन्मी उसने ईर्ष्या का रूप ले लिया। उसके अभिमान मुखरित होने लगा-“महावीर ज्ञानी नहीं-इन्द्रजालिक है। मैं उसके प्रभाव के थोथेपन को उद्घाटित कर दूंगा। मैं भी वसुभूति गौतम का पुत्र हूँ।" इस दर्प के साथ इन्द्रभूति अपने 500 शिष्यों के साथ समवसरण स्थल पहुंचा।
___ भगवान ने उसे सम्बोधित कर कहा कि आप मुझे इन्द्रजालिक मानकर मेरे प्रभाव को नष्ट करने के विचार से आए है, न ! इसके अतिरिक्त 'आत्मा है अथवा नहीं'-इस शंका को भी आप अपने मन में लेकर आए हैं, न ! इस कथन से इन्द्रभूति पर भगवान का अतिशय प्रभाव हुआ। वह अवाक् रह गया। वैमनस्य और ईर्ष्या का भाव न जाने कहाँ तिरोहित हो गया। भगवान ने इन्द्रभूति गौतम की समस्त शंकाओंका समाधान कर दिया और वह सन्तुष्ट हो गया।
प्रतिबोधित होकर इन्द्रभूति गौतम ने अपने सभी शिष्यों सहित भगवान के चरणों में दीक्षा कर ली। इस घटना की प्रतिक्रिया भी बड़ी तीव्र हुई। पूर्वमत (कि महावीर इन्द्रजालिक है) की शेष पंडितों ने इस घटना से पुष्टि होते हुए देखी। वे सोचने लगे कि इन्द्रजालिक न होते तो महावीर को इन्द्रभूति के मन में विचारों का पता कैसे लगता? यह भी उनका इन्द्रजाल ही है कि जिसके प्रभाव के कारण इन्द्रभूति और उनके शिष्य दीक्षित हो गए है। दुगुने वेग से इनमे विरोध का भाव उठा और शास्त्रार्थ में भगवान को परास्त करने के उद्देश्य से अब अग्निभूति आया, किन्तु सत्यमूर्ति भगवान के समक्ष वह भी टिक नहीं पाया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org