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________________ भगवान महावीर स्वामी अभिग्रह के अनुकूल न पाकर अस्वीकार करके आगे बढ जाते थे। इस प्रकार 5 माह 25 दिन का समय निराहार ही बीत गया और तब चन्दन बाला ( चन्दना) से भिक्षा ग्रहण कर भगवान ने आहार किया। अभिग्रह की सारी परिस्थिति तभी पूर्ण हुई थीं । चन्दना चम्पा - नरेश दधिवाहन की राजकुमारी थी। कौशाम्बी के राजा शतानीक ने चम्पा पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया था और विजयी सैनिक लूट के माल के साथ रानी और राजकुमारी को भी उठा लाए थे। मार्ग में रथ से कूदकर माता ने तो आत्मघात कर लिया, किन्तु सैनिक ने चन्दना को कौशाम्बी लाकर नीलाम कर दिया। सेठ धनावह उसे क्रय कर घर ले आया । धनावह का चन्दना पर अतिशय पवित्र स्नेह था, किन्तु उसकी पत्नी के मन में उत्पन्न होने वाली शंकाओं ने उसे चन्दना के प्रति ईष्यालु बना दिया था। सेठानी ने चन्दना के सुन्दर केशों को कटवा दिया, उसके हाथ-पैरों में श्रृंखलाएँ डलवा दीं और उसे तहखाने में डाल दिया । उसे भोजन भी नदीं दिया गया। धनावह सेठ को 3 दिन के पश्चात् जब चन्दना की इस दुर्दशा का पता लगा तो उसके हृदय में करुणा उमड़ पड़ी । वह तुरन्त घर गया और पाया कि सारी खाद्य सामग्री भण्डार में बन्द है। अतः बाकुले उबालकर उसने चन्दना को एक सूप में रखकर खाने को दिए । 149 चन्दना भोजनके लिए यह सूप लेकर बैठी ही थी कि श्रमण भगवान का उस मार्ग से आगमन हुआ। भगवान को भेंट करने की कामना उसके मन में भी प्रबल हो उठी, किन्तु जो सामग्री उसके पास थी वह कितनी तुच्छ है - इसका ध्यान आने पर उसके नेत्रों में अश्रु झलक आए। प्रभु दर्शन से उसे अतीव हर्ष हुआ और यह आभ्यन्तरिक हर्षभाव अत्यन्त कोमलता के साथ उसके मुखमण्डल पर प्रतिबिम्बित हो गया। उसने श्रद्धा और भक्तिभाव के साथ भगवान से आहार स्वीकार करने का निवेदन किया । आदि बातों से भगवान का अभिग्रह पूर्ण हो रहा था अतः उन्होंने चन्दना की भिक्षा ग्रहण कर ली । चन्दना के मन में हर्ष का अतिरेक तो हुआ ही, साथ ही एक जागृति भी उसमें आयी । विगत कष्ट और अपमानपूर्ण जीवन का स्मरण कर उसके मन में वैराग्य उदित हो गया । यही चन्दना आगे चलकर भगवान की शिष्यमण्डली में एक प्रमुख साध्वी हुई। गोशालक प्रसंग वैभवशाली नालन्दा के आज जहाँ अवशेष है वहाँ कभी राजगृह का विशाल अंचल था। भगवान का चातुर्मास इसी क्षेत्र में था । संयम ग्रहण करने की अभिलाषा से एक युवक यहाँ भगवान के चरणों में उपस्थित हुआ । उसके इस आशय पर भगवान ने अपने निर्णय को व्यक्त नहीं किया, किन्तु युवक गोशालक ने तो प्रभु का ही आश्रय पकड़ लिया था । प्रभु समदृष्टि थे- उनके लिए कोई शुभ अथवा अशुभ न था, किन्तु गोशालक दूषित मनोवृत्ति का था। स्वयं चोरी करके भगवा की ओर संकेत कर देने तक में उसे कोई संकोच नहीं होता था । करुणासिन्धु भगवान महावीर पर भला इसका क्या प्रभाव होता ? उनके चित्त में गोशालक के प्रति कोई दुर्विचार भी कभी नहीं आया। भगवान वन में विहार कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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