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________________ भगवान महावीर स्वामी 147 भी क्या प्रभावित करतीं? संगम को पराजय पर पराजय मिलती जा रही थी और भगवान अडिगता की कसौटी पर खरे उतरते जा रहे थे। निदान, संगम ने अबकी बार फिर नया दाँव रखा। सारी प्रकृति सहसा सुरम्य हो उठी। सर्वत्र वासंतिक मादकता का प्रसार हो गया। शीतल-मन्द, सुगंधित पवन प्रवाहित होने लगी। भाँति-भाँति के सुमन मुस्कराने लगे। भ्रमरों की गुंजार से सारा क्षेत्र भर गया। ऐसे सुन्दर और सरस वातावरण में भगवान के समक्ष अपनी 5 अन्य सखियों के साथ एक अनुपम रूपमती युवयी आयी। उसका कोमल, सुरंगी, सौन्दर्य सम्पन्न अधखुला अंग भाँति-भाँति के आभूषणों से सज्जित था और अत्यन्त कलात्मकता के साथ किया गया श्रृंगार उसके रूप को अद्भुत निखार दे रहा था। यह सुन्दर भाँति-भाँति के हावभावों, आंगिक चेष्टाओं आदि से भगवान को अपनी ओर आकर्षित करने लगीं। भगवान का चित्त भी अपनी ओर आकृष्ट करने में विफल रहने वाली यह सुन्दरी अन्तत: बड़ी निराश और क्षुब्ध हुई। यह विफलता सुन्दरी की नहीं स्वयं देव संगम की थी। वह बड़ा कुंठित हो चला था। वह सोच भी नहीं पा रहा था कि पराजय की लज्जा से बचने के लिए अब क्या उपाय किया जाय? किस प्रकार महावीर को चंचल और अस्थिर सिद्ध किया जाय? खीझ की अकुलाहट से ग्रस्त संगम ने फिर एक नवीन संकट उपस्थित कर दिया। प्रात:काल हो गया था। कुछ चोर राजकीय कर्मचारियों को साथ लेकर वहाँ उपस्थित हुए। इन चोरों ने भगवान की ओर इंगित करते हुए राज्य-कर्मचारियों से कहा कि यही हमारा गुरु है। इसने हमें चोरी करना सिखाया है। क्रूद्ध होकर कर्मचारियों ने भगवान की देह पर डंडे बरसाना आरम्भ कर दिया। शक्ति और अधिकार में अंधे इन कर्मचारियों ने भगवान को जितना दण्डित कर सकते थे, किया। किन्तु महावीर स्वामी तो सहिष्णुता की प्रतिमा ही थे। वे मौन बने रहे, अडिग बने रहे। उनकी साधना यथावत् निरन्तरित रही। इस प्रकार संगम भगवान को 6 माह की दीर्घावधि तक पीड़ित करता रहा, किन्तु उसे अपने उद्देश्य में रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली। अन्त में उसे स्पष्टत: अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी। वह भगवान से कहने लगा कि धन्य हैं आप और आपकी साधना। मैं समस्त क्रूर कर्मों और माया का प्रयोग करके भी आपकों विचलित नहीं कर पाया। पराजित होकर ही मुझे प्रस्थान करना पड़ा रहा है। भगवान महावीर का हृदय इस समय असीम करुणा से भर गया। उनके नेत्र अश्रुपूरित थे। विदा होते हुए जब संगम ने इस स्थिति का कारण पूछा तो भगवान ने उत्तर में कहा कि मेरे सर्पक में आने वालों का पाप- भार कम हो जाता है, किन्तु तू तो और अधिक कर्मों को बाँधकर जा रहा है। जो तेरे लिए भावी कष्ट के कारण होंगे। अपने घोर अपराध के प्रति भी भगवान के मन में ऐसा अगाध करुणा का भाव रहता था। वे संगम के भावी अनिष्ट से कष्टित हो रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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