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________________ 146 चौबीस तीर्थंकर तभी भगवान के मुख से प्रभावी और अत्यन्त मधुरवाणी मुखरित हुई- "बुझ्झ बुझ्झ किं न बुझ्झई।" सर्प, तनिक सोच"अपने क्रोध को शान्त कर। अमृतोपम इस वाणी से चण्डकौशिक का भीषण विष शान्त हो गया। भगवान के मुखश्री का वह टकटकी लगाकर दर्शन करता रहा। ज्ञान की प्राप्ति कर उसे अतीत के कुकर्म स्मरण होने लगे और उसे आत्मग्लानि होने लगी। चण्डकौशिक का कायापलट ही हो गया। उसने हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया। अन्य प्राणियों से कष्टित होकर भी उसने कभी आक्रमण नहीं किया। अहिंसक वृत्ति को अपना लेने के कारण चण्डकौशिक के प्रति सारे क्षेत्र में श्रद्धा का भाव फैल गया और ग्रामवासी उस पर घृत-दुग्धादि पदार्थ चढ़ाने लगे। इन पदार्थों के कारण चीटियाँ उस पर चढ़ गयीं और उसकी सारी देह को ही नोंच-नोंचकर खा गयीं। किन्तु उसके मन में प्रतिहिंसा का भाव न आया। इस प्रकार देह-त्याग कर अपने जीवन के अन्तिम काल के शुभाचरण के कारण चण्डकौशिक का जीव 8वें देवलोक का अधिकारी बना। संगम का विकट उपसर्ग इस प्रकार भगवान ने उपसर्गों एवं परीषहों को सहिष्णुतापूर्वक झेलते हुए जब अपनी साधना के 10 वर्ष व्यतीत कर लिए, तब की घटना है। स्वर्ग में, देवसभा में सुरराज इन्द्र ने भगवान की साधना-दृढ़ता, करुणा, अहिंसा, क्षमाशीलता आदि सद्गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। देवगण चकित रहे, किन्तु एक मनुष्य की इतनी प्रशंसा एक देव 'संगम सहन न कर पाया। भयानक दुर्विचार के साथ वह पृथ्वी लोक पर आया। उस समय भगवान अनार्य क्षेत्र में पेढालग्राम के बाहर पोलास चैत्य में महाप्रतिमा तप में थे। वे ध्यानस्थ खड़े थे। संगम ने आकर भगवान को नानाविधि से यातनाएँ देना आरम्भ किया। संध्या समय में सारा वातावरण अत्यन्त भयानक हो गया। वेगवती आँधियों ने आकर भगवान के तन को धूलियुक्त कर दिया। रौद्ररूप धारण कर प्रकृति ने अनेक कष्ट दिए, किन्तु भगवान की साधना अटल बनी रही। संगम भी इतनी शीघ्रता से पराजय स्वीकारने वाला कहाँ था? मतवाला हाथी, भयानक सिंह आदि अनेक रूप बनाकर वह भगवान को आतंकित और तपच्युत करने का प्रयत्न करने लगा। किन्तु उसका यह दाँव भी खाली गया। भगवान पर इन सब का कोई प्रभाव नहीं हुआ। भय से भगवान को प्रभावित होते न देखकर उसने एक अन्य युक्ति का आश्रय लिया। वह अब भगवान के मन पर प्रहार करने लगा। संगम ने कुछ ऐसी माया रखी कि भगवान को आभास होने लगा, जैसे उनके स्वजन एकत्रित हुए हैं। पत्नी यशोदा उनके समझ रो-रोकर विलाप कर रही है और अपनी दुर्दशा का वर्णन कर रही है कि नन्दिवर्धन ने उसे अनादृत कर राजभवन से निष्कासित कर दिया है। पिता के वियोग में प्रियदर्शना भी अत्यन्त दुखी है। भगवान के मन को ये प्रवंचनाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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