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________________ 132 चौबीस तीर्थंकर का रूप होती हैं। भगवान महावीर भी इस सिद्धान्त के अपवाद नहीं थे। जब उनका जीव अनेक पूर्वजन्मों के पूर्व नयसार के भव में था, तभी श्रेष्ठ संस्कारों का अंकुरण उनमें हो गया था। अत्यन्त प्राचीनकाल में महाविदेह में जयन्ती नाम की एक नगरी थी, जहाँ शत्रुमर्दन नाम का राजा शासन करता था। नयसार इसी नरेश का सेवक था और प्रतिष्ठानपुर का निवासी था। नयसार स्वभाव से ही गुणग्राहक, दयालु और स्वामिभक्त था। अपने स्वामी के आदेश पर एक बार नयसार वन में लकड़ी काटने को गया हुआ था। दोपहर को जब वह भोजन की तैयारी करने लगा, तभी उसने एक मुनि का दर्शन किया, जो परम प्रभावान् थे, किन्तु श्राान्त-क्लान्त, तृषित और क्षुधित लग रहे थे। मुनि इस गहन वन में भटक गए थे, उन्हें मार्ग नहीं मिल रहा था। नयसार ने प्रथमत: तो मुनि का सेवा-सत्कार किया, आहार आदि का प्रतिलाभ लिया; तत्पश्चात् मुनि को वह उनके गन्तव्यस्थल तक पहुँचा। मुनि नयसार की सेवा पर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे धर्मोपदेश दिया। नयसार को मुनि के सम्पर्क से सम्यक्त्व की उपलब्धी हुई और वह आजीवन सम्यधर्म का र्वािह करते हुए मुनिजनों की सेवा में ही व्यस्त रहा। नयसार का जीव अपने दूसरे भव में सौधर्म कल्प में देव हुआ। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का पुत्र था-चक्रवर्ती भरत और भरत का पुत्र था मरीचि। भगवान ने भरत के एक प्रश्न के उत्तर में मरीचि के विषय में कहा था कि वह इसी अवसर्पिणी काल में तीर्थंकर बनेगा। इस भावी गरिमा से उसे गर्व की उन्मत्तता हो गयी थी और उसने इसकी आलोचना भी नहीं की। इसी मरीचि के रूप में (सौधर्म कल्प से च्यवन कर) नयसार ने अपना तीसरा भव धारण किया था। मरीचि भगवान का सहगामी रहा और वही प्रथम परिव्राजक कहलाने का गौरव भी रखता है। यही नयसार का जीव अपने चौथे भव में ब्रह्मलोक का देव, पाँचवें भव में कौशिक ब्राह्मण, छठे भव में पुष्यमित्र ब्राह्मण, सातवें भव में सौधर्म देव, आठवें भव में अग्निद्योत, नौवें भव में द्वितीय कल्प का देव, दसवें भव में अग्निभूति ब्राह्मण, ग्यारहवें भव में सनत्कुमार देव, बारहवें भव में भारद्वाज, तेरहवें भव में माहेन्द्र कल्प का देव, चौदहवें भव में स्थावर ब्राह्मण, पन्द्रहवें भव में ब्रह्मकल्प का देव और सोलहवें भव में विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति बना। विश्वभूति सांसारिक कपटाचार को देखकर विरक्त हो गया था और अपने मुनि-जीवन में उसने घोर तपस्याएँ की। अपने 17वें भव में नयसार का जीव महाशुक्रदेव हुआ और तदनन्तर वासुदेव त्रिपृष्ठ के रूप में उसने 18वें भव धारण किया। पीठ पर 3 पसलियों के उभरे होने के कारण उसका नाम त्रिपृष्ठ हुआ था। वह अत्यन्त बलशाली और पराक्रमी राजकुमार था। इस युग का प्रतिवासुदेव था-राजा अश्वग्रीव। अश्वग्रीव के राज्य में एक स्थान पर शालिखेत में एक वन्यसिंह का बड़ा आतंक था। उसके हनन के लिए अश्वग्रीव ने वासुदेव त्रिपृष्ठ के पिता महाराजा प्रजापति की सहायता की याचना की थी। त्रिपृष्ठ शस्त्रों से लेस होकर, रक्षारूढ़ होकर सिंह को समाप्त करने चला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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