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________________ 241 भगवान महावीर स्वामी (चिन्ह-सिंह) जिनकी आत्मा राग-द्वेष और मोहादि दोषों से सर्वथा रहित है, जो मेरु पर्वत की भाँति धीर हैं, देववृन्द जिनकी स्तुति करते हैं-ऐसे सिद्धार्थ वंश के पताका तुल्य और अरिवृन्द को नम्र करने वाले हे महावीर! मैं विनयपूर्वक आपकी प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि आप अज्ञान के दूर हटाने वाले हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकरों की जो परम्परा भगवान आदिनाथ ऋषभदेव जी से प्रारम्भ हुई थी, उसके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हुए हैं। 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के 250 वर्ष पश्चात् और ईसा पूर्व छठी शताब्दी अर्थात् आज से लगभग 26 सौ वर्ष पूर्व भगवान ने दिग्भ्रान्त जनमानस को कल्याण का मार्ग बताया था। धर्मसंघ की स्थापना द्वारा भगवान ने तीर्थंकरत्व को स्थापित किया ही था, साथ ही सच्चे अर्थों में वे सफल और समर्थ लोकनायक भी थे। अंधपरम्पराओं, पाखण्ड, वर्णादि भेद-भाव को दूर कर वे जहाँ सामाजिक सुधार के सबल सूत्रधार बने, वहाँ उन्होंने मानवीय उच्चादर्शों से च्युत मानव-जाति को करुणा, अहिंसा, प्रेम और बन्धुत्व का पाठ भी पढ़ाया। इस प्रकार भगवान विश्वबन्धुत्व की उज्ज्वल उदारता के धारक एवं संस्थापक भी थे। अखिल विश्व को भगवान ने शान्ति, क्षमा, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि के पावन सिद्धान्तों का अमृतस्थल बना दिया और जगत को मानवीय रूप प्रदान किया। इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने मानव संस्कृति को एक व्यवस्थित रूप देकर उसका शुभारम्भ किया था, उसको मंगलपूर्ण और भव्य आदर्शों से समन्वित करने का महान् कार्य अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने ही सम्पन्न किया। वे भटकी हुई विश्व-मानवता के उद्धारक और पथ-प्रदर्शक थे। भगवान यथार्थ में ही 'विश्व-ज्योति' थे। पूर्वजन्म-कथा प्रत्येक आत्मा परमात्मा बनने की सम्भावना से युक्त होता है। विशेष कोटि की उपलब्धियों के आधार पर ही उसे यह गरिमा प्राप्त होती है और ये उपलब्धियाँ किसी एक ही जन्म की अर्जुनाएँ न होकर जन्म-जन्मान्तरों के सुकर्मों और सुसंस्कारों के समुच्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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