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भगवान पार्श्वनाथ
(चिन्ह-नाग)
जो संसार रूपी पृथ्वी को विदारने में हल के समान हैं, जो नील वण शरीर से सुशोभित हैं और पार्श्व यक्ष जिनकी सदा सेवा करता है-ऐसे वामादेवी के नन्दन श्री पार्श्व प्रभु में मेरी उत्साहयुक्त भक्ति हो, जैसे नील कमल में भ्रमर की भक्ति होती है।
भगवान पार्श्वनाथ स्वामी 23वें तीर्थंकर हुए है। उनका समग्र जीवन ही 'क्षमा' और करुणा का मूर्तिमंत रूप था। अपने प्रति किए गए अत्याचार और निर्मम व्यवहार को विस्मृत कर अपने साथ वैमनस्य का तीव्र भाव रखने वालों के प्रति भी सहृदयता, सद्भावना और मंगल का भाव रखने के आदर्श का अनुपम चित्र भगवान का चरित प्रस्तुत करता है। यह किसी भी मनुष्य को महान् बनाने की क्षमता रखने वाली आदर्शावली भगवान की जन्म-जन्मान्तर की सम्पत्ति थी। उनके पूर्वभवों के प्रसंगों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती
भगवान का अवतरण-काल ईसापूर्व 9-10वीं शती माना जाता है। वे इतिहास-चर्चित महापुरुष हैं। 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी से केवल ढाई-तीन सौ वर्ष पूर्व ही भगवान पार्श्वनाथ स्वामी हुए हैं। “आर्यों के गंगा-तट एवं सरस्वतीतट पर पहुँचने से पूर्व ही लगभग 22 प्रमुख सन्त अथवा तीर्थंकर जैनों को धर्मोपदेश दे चुके थे, जिनके पश्चात् पार्श्व हुए और उन्हें अपने उन सभी पूर्व तीर्थंकरों का अथवा पवित्र ऋषियों का ज्ञान था, जो बड़े-बड़े समयान्तरों को लिए हुए पहले हो चुके थे।" भारतीय इतिहास ‘एक दृष्टि' ग्रन्थ में गंभीर गवेषणा के साथ डॉ० ज्योतिप्रसाद के उपर्युक्त विचार भगवान के मानसिक उत्कर्ष का परिचय देते हैं।
जैनधर्म के उद्गम में भगवान की कितनी महती भूमिका रही है-डॉ० चार्ल शाण्टियर की इस उक्ति से इस बिन्दु पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है-“जैनधर्म निश्चित रूपेण महावीर से प्राचीन है। उनके प्रख्यात पूर्वगाामी पार्श्व प्राय: निश्चितरूपेण एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं और परिणामस्वरूप मूल सिद्धांतों की मुख्य बातें महावीर से बहुत पहले सूत्ररूप धारण कर चुकी होंगी।" स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक अस्तित्व तो असंदिग्ध है ही, साथ ही जैनधर्म के प्रवर्तन का श्रेय भी उन्हें है, जो समय के साथ-साथ विकसित होता चला गया।
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