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भगवान पार्श्वनाथ
तत्कालीन परिस्थितियाँ
उस काल की धार्मिक परिस्थितयों का अध्ययन दो प्रमुख बिन्दुओ को उभारता है। एक तो यह कि उस युग में तात्त्विक चिन्तन विकसित होने लगा था । जीवन और जगत के मूलभूत तत्त्वों के विषय में विचार-विनियम और चिन्तन-मनन द्वारा सिद्धांतों का निरूपण होने लगा था और इस प्रकार 'पराविद्या ' आकार में आने लगी थी । यज्ञादि कर्मकाण्ड विषयक 'अपराविद्या' निस्तेज होने लगी थी, इसे मोक्ष- प्राप्ति का समर्थ साधन मानने में भी सन्देह किया जाने लगा था। ये चिन्तक और मननकर्त्ता ब्रह्म, जीवन, जगत, आत्मादि सूक्ष्म विषयों पर शांतैकान्त स्थलों में निवास और विचरण करते हुए मंथन किया करते तथा प्रायः मौन ही रहा करते थे। अपने बाह्य व्यवहार की इस विशिष्टता के कारण ये 'मुनि' कहलाते थे।
दूसरी ओर यज्ञादि कर्मों के बहाने व्यापक रूप से बलि के नाम पर जीवहिंसा की जाती थी। बलि का तथाकथित प्रयोजन होता था - देवों को तुष्ट और प्रसन्न करना। भगवान पार्श्वनाथ ने इसे मिथ्याचार बताते हुए इसका विरोध किया था। बलि की और यज्ञादि कर्मकाण्डों की निन्दा के कारण यज्ञादि में विश्वास रखने वालों का विरोध भी भगवान को सहना पड़ा होगा, किन्तु इस कारण से ऐसी मान्यता की स्थापना में औचित्य प्रतीत नहीं होता कि विरोधियों के कारण भगवान ने अपना जन्म क्षेत्र त्याग कर धर्मोपदेश के लिए अनार्य प्रदेश को चुना। अनार्य प्रदेश में धर्म प्रचार का अभियान तो उन्होंने चलाया, पर किसी आतंक के परिणामस्वरूप नहीं, अपितु व्यापक जन-कल्याण की भावना ने ही उन्हें इस दिशा में प्रेरित किया था ।
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निश्चित ही जन-मन के कल्याणार्थ अपार - अपार सामर्थ्य भगवान पार्श्वनाथ में था, जिसका उन्होंने सदुपयोग भी किया। आत्म-कल्याण में तो वे पीछे रहते भी कैसे ? तीर्थंकरत्व की उपलब्धि भगवान की समस्त गरिमा का एकबारगी ही प्रतिपादन कर देती है । यह सारी योग्यता, क्षमा और विशिष्ट उपलब्धियाँ उनके इसी एक जीवन की साधनाओं का फल नहीं, अपितु जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य कर्मों और सुसंकारों का संगठित एवं व्यक्त
रूप था।
पूर्वजन्म
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भगवान के 10 पूर्व भवों का विवरण मिलता है-
1. मरुभूति और कमठ का भव
2. हाथी का भव
3. सहस्रार देवलोक का भव
4. किरणदेव विद्याधर का भव
5. अच्युत देवलोक का भव
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