SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 98 चौबीस तीर्थंकर दान कार्य सम्पन्न हो चुकने पर देवताओं ने भगवान का दीक्षाभिषेक किया और निष्क्रमणोत्सव आयोजित किया। अपराजिता नामक पालकी द्वारा भगवान नीलगुहा उद्यान में पधारे, जहाँ सांसारिक विभूति के शेष चिन्ह आभूषण, वस्त्रादि का भी भगवान ने स्वत: परित्याग कर दिया। षष्ठ भक्त तप में उन्होंने एक सहस्र अन्य राजाओं सहित चारित्र स्वीकार किया। भगवान की यह दीक्षा-ग्रहण तिथि फाल्गुन शुक्ला द्वादशी थी व श्रवण नक्षत्र की शुभ बेला थी। भगवान मुनिसुव्रत को चारित्र स्वीकार करते ही मन:पर्यवज्ञान का लाभ हो गया। आगामी दिवस प्रभु का प्रथम पारणा राजा ब्रह्मदत्त के यहाँ क्षीरान के साथसम्पन्न हुआ। इस अवसर पर पाँच विछवयों की वर्षा कर देवताओं ने दान की महिमा प्रकट की। पारणा करने के पश्चात् प्रभु ने राजगृही से विहार किया और विविध परीषहों एवं अभिग्रहों को समभाव के साथ झेलते हुए वे ] मास तक ग्रामानुग्रम विचरण करते रहे, अनेक विध बाह्य आन्तरिक तपों और साधनाओं में संलग्न रहे। अन्तत: वे पुन: उसी उपवन में लौटे जो उनका दीक्षास्थल रहा था। वहाँ चम्पा वृक्ष के तले वे ध्यानलीन हो गए। शुक्लध्यान की चरम स्थिति में पहुँचकर भगवान ने सकल घातिया कर्मों का क्षय कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति हो गयी। इन्द्रादिक देव भगवान के अभिनन्दनार्थ एकत्रित हुए। उन्होंने परम उललास के साथ भगवान के केवलज्ञान का महोत्सव आयोजित किया। केवल भगवान मुनिसुव्रत का समवसरण रचा गया और असंख्य नर-नारी आत्म-कल्याण का मार्ग पाने की अभिलाषा से भगवान की प्रथम देशना का श्रवण करने को एकत्रित हुए। इस महत्त्वपूर्ण देशना में भगवान ने मुनि और श्रावक के लक्षणों का विवेचन किया। भगवान की वाणी में अमोघ प्रभाव था। आपके उपेदश से प्रेरित होकर अनेक-जन दीक्षित हो गए, अनेक ने सम्यक्त्व ग्रहण किया और अनेक ने श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया। परिनिर्वाण ___केवली बन जाने के पश्चात् भगवान ने जन-जन को आत्म-कल्याण के मार्गानुसरण हेतु प्रेरित करने का व्यापक अभियान चलाया। इस हेतु वे लगभग साढ़े सात हजार वर्ष तक जनपद में सतत रूप से विचरण करते हुए उपदेश देते रहे अन्तत: अपने मोक्षकाल के समीप आने पर भगवान एक सहस्र मुनिजन सहित सम्मेत शिखर पर पधारे और ज्येष्ठ कृष्णा नवमी को श्रवण नक्षत्र में अनशनपूर्वक सकल कर्मों का क्षय कर उन्होंने निर्वाण पद प्राप्त कर लिया। भगवान सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। भगवान मुनिसुव्रत स्वामी ने कुल 30 हजार वर्ष का आयुष्य पाया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy