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भगवान अरहनाथ
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हुए। इस क्षेत्र को जीतकर पश्चिम की ओर अग्रसर हुए और महान् विजयश्री पाकर वे उत्तर में आए। यहाँ के भी तनों खण्डों को उन्होंन साध लिया। गंगा समीप का सारा क्षेत्र भी उन्होंने अधीनस्थ करलिया और इस प्रकार समस्त भरतखण्ड में विजय ध्वजा फहराकर महाराज 400 वर्षों के इस अभियान की उपलब्धि 'चक्रवर्ती गौरव' के साथ राजधानी हस्तिनापुर लौटे थे। देव-मनुजों के विशाल समुदाय ने भूपेश का चक्रवर्ती नरेश के रूप में अभिषेक किया इसके साथ ही समारोह जो प्रारम्भ हुए तो 12 वर्षों तक चलते रहे।
दीक्षा-केवलज्ञान
जब सम्राट अरहनाथ 21 सहस्र वर्षों तक अखिल भरतक्षेत्र का एकछत्र आधिपत्य भोग चुके, तो उनकी चिन्तन-प्रवृत्ति प्रमुखता पाने लगी और वे गम्भीरतापूर्वक सांसारिक सुखों और विषयों की असारता पर विचार करने लगे। संयम स्वीकार कर लेने की अभिलाषा उनके मन में अंगड़ाइयाँ लेने लगी। तभी लोकान्तिक देवों ने उनसे धर्मतीर्थ के प्रवर्तन हेतु प्रार्थनाएँ कीं। इससे सम्राट को अपने जीवन की भावी दिशा का स्पष्ट संकेत मिल गया और उन्होंने समझ लिया कि अब उनके भोगकर्म चुक गए हैं। अत: तत्काल ही वे युवराज अरविन्द कुमार को सत्ता सौंपकर स्वंय विरक्त हो गए और वर्षीदान करने लगे। वर्षभर तक उदारता के साथ प्रभु ने याचकों को दान दिया और इसकी समाप्ति पर उनका दीक्षाभिषेक हुआ। तदनन्तर वैयन्ती शिविका पर आरूढ़ होकर भगवान सहस्राभ्र उद्यान में पधारे। यहाँ आकर उन्होंने वैभव व भौतिक पदार्थों के अन्तिम अवशेष वस्त्रों एवं आभूषणों का भी परित्याग कर दिया। मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी का वह स्मरणीय दिन था जब भगवान ने षष्ठम भक्त तप में संयम ग्रहण कर लिया। दीक्षा- ग्रहण के तुरन्त पश्चात् ही भगवान को मन:पर्यवज्ञान का लाभ हो गया था।
__ आगामी दिवस प्रभु ने विहार किया और राजपुर पहुंचे। वहाँ के भूपति अपराजित के यहाँ परमान्न से प्रभु का प्रथम पारणा हुआ।
राजपुर से प्रस्थान कर भगवान अरहनाथजी अति विशाल क्षेत्र में विहार करते हुए नाना भाँति के परीषह सहे और कठोर तप व साधनाएँ करते रहे। निद्रा-प्रमाद से वंचित रहते हुए धयान की तीन वर्ष की साधना अवधि के पश्चात् भगवान का पुन: हस्तिनापुर में आगमन हुआ। उसी उद्यान में, जो उनका दीक्षास्थल था, एक आभ्रवृक्ष के नीचे प्रभु ध्यान लीन हो गए। कायोत्सर्गकर शुक्लध्यान की चरमस्थिति पर ज्यों ही भगवान पहुँचे कि उन्होंने सभी घातिक कर्मों को विदीर्ण कर दिया। उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी।
भगवान के केवलज्ञान- लाभ से त्रिलोक में एक प्रचण्ड आलोक फैल गया। आसनकम्प से इन्द्र को सन्देश मिला कि भगवान अरहनाथ केवली हो गए हैं। वह अन्य देवताओं सहित भगवान की स्तुति हेतु उपस्थित हुआ।
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