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भगवान धर्मनाथ
( चिन्ह - वज्र )
भगवान धर्मनाथ स्वामी पन्द्रहवें तीर्थंकर हुए
हैं ।
“हे भानुसुत धर्म जिनेश्वर ! आप प्रधान धर्म से सम्पन्न तथा माया रहित हैं। आपका नाम-स्मरण ही प्राणियों को अत्यन्त मंगल देने वाला है। आपकी प्रभा मेरु पर्वत के समान देदीप्यमान है, उत्तम लक्ष्मी से सम्पन्न है। अतः मैं आपको प्रणाम करता हूँ । ”
पूर्वजन्म
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धातकीखण्ड का पूर्व विदेह क्षेत्र - उसमें बसा हुआ भद्दिलपुर राज्य । कभी इस राज्य के नरेश थे - महाराज दृढ़रथ जो शूर वीर और महान् पराक्रमी थे। अपनी शक्ति के समीप के समस्त राज्यों को अपने अधीन कर महाराज ने विशद् साम्राज्य की स्थापना करली थी। महाराज दृढ़रथ की अन्य और अद्वितीय विशेषता थी - 'धर्म - प्रियता' । परम शक्तिवान होते हुए भी वे धर्म की आराधना में कभी पीछे नहीं रहते थे । संसार के विषयों में रहते हुए भी वे उनमें लिप्त नहीं थे। जागतिक ऐश्वर्य एवं सुखों के असारता के अनुभव ने उन्हें शाश्वत आनन्द की खोज के लिए प्रेरित किया और एक दिन समस्त विषयों और वैभव को त्यागकर उन्होंने चारित्र - धर्म स्वीकार कर लिया। इसके लिए उन्होंने विमलवाहन मुनि का चरणाश्रय प्राप्त किया था । दृढ़ साधना एवं कठोर तप के परिणामस्वरूप उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया था और आयुष्य पूर्ण होने पर वे विजय विमान में अहमिन्द्र रूप में उत्पन्न हुए।
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जन्म - वंश
वैजयन्त विमान में सुखोपभोग की अवधि समाप्त होने पर मुनि दृढ़रथ के जीव ने मानवयोनि में देहधारण की। रत्नपुर के शूरवीर नरेश महाराजा भानु इनके पिता और रानी सुव्रता इनकी माता थी । वैशाख शुक्ला सप्तमी को पुष्य नक्षत्र के शुभयोग में माता सुव्रता के गर्भ में मुनि दृढ़रथ का जीव स्थिर हुआ था। गर्भधारण की रात्रि में ही रानी 14 दिव्यस्वप्नों का दर्शन किया जिनके शुभकारी प्रभाव को जानकर माता अत्यन्त हर्षित हुई ।
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