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________________ 50 चौबीस तीर्थंकर (प्रथम) अरिष्टपुर-नरेश महाराजा पुनर्वसु के यहाँ हुआ था। प्रभु ने जिस स्थान पर खड़े रहकर दान ग्रहण किया था स्मारक स्वरूप उस स्थान पर राजा ने एक स्वर्णपीठ का निर्माण करवाया था। अपने साधक जीवन में प्रभु ने घोर तपस्याएँ कीं। मौनव्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए उन्होंने ग्रामानुग्राम विहार किया और सर्वथा एकाकी रहे। 3 माह तक वे इस प्रकार उग्र तपस्या में लीन रहे, भाँति-भाँति के परीषहों को धैर्य और शान्ति के साथ सहन किया एवं छद्मस्थावस्था काकाल नितान्त आत्म-साधना में व्यतीत किया। एक दिन प्रभु शीतलनाथ का आगमन पुन: उसी सहस्राभ्रवन में हुआ और वे पीपल के वृक्ष तले परम शुक्लध्यान में लीन हो गए। इस प्रकार उन्होंने ज्ञानावरण आदि घाती कर्मों का समग्रत: विनाश कर पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के पावन पलों में पौष कृष्णा चतुर्दशी को प्रभु ने केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली। प्रथम देशना केवली प्रभु के विशाल दिव्य समवसरण की रचना हुई। भगवान की धर्मदेशना के अमृत का पान करने के पवित्र प्रयोजन से असंख्य नर-नारी और देवतागण उपस्थित हुए। भगवान शीतलनाथ ने अपनी इस प्रथम देशना में मोक्ष-प्राप्ति के एक मात्र मार्ग 'संवर' की स्पष्ट समीक्षा की और संसार के भौतिक एवं नश्वर पदार्थों के प्रति आसक्ति के भाव को मनुष्य के दुःखों का मूल कारण बताया। प्रभु ने उपदेश दिया कि आत्मा का यह जन्म-मरण- परिचक्र पापकर्मों के कारण ही चलता है। यदि मनुष्य संवर को अपना ले तो यह चक्र सुगमता से स्थगित किया जा सकता है। मनोविकारों पर नियंत्रण ही संवर है। क्षमा की साधना से क्रोध का संवर हो जाता है। विनय और नम्रता अहंकार को समाप्त कर देती है। पूर्णत: संवर स्थिति को प्राप्त कर लेने पर आत्मा को विशुद्धता की अवस्था मिल जाती है और मुक्ति सुलभ हो जाती है। भगवान के उपदेश का सार आचार्य हेमचन्द्र की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। “आस्रवी भव हेतुः स्याद् संवरो मोक्षकारणम्।" अर्थात्-आस्रव संसार का और संवर मोक्ष का कारण है। इस प्रेरक देशना से उद्बोधित होकर सहस्र-सहस्र नर-नारी दीक्षित होकर मोक्ष- मार्ग पर अग्रसर हुए। भगवान ने चतुर्विध संघ स्थापित किया और उन्होंने भावतीर्थंकर होने का गौरव प्राप्त किया। परिनिर्वाण __ भगवान ने विस्तृत क्षेत्रों के असंख्य-असंख्य जनों को अपने उपदेशों से लाभान्वित किया एवं अन्तकाल समीप आने पर आपने एक मास का अनशन प्रारम्भ किया। एक हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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